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सांख्यदर्शनविचारः
२६७
परमाणुद्रयणुकादिभिरुत्पत्तिप्रसिद्धेस्तन्मात्रादुत्पत्तिर्न संभवत्येव । तथा हि । वीताः पदार्थाः रूपादिमत्स्वावयवैरुत्पद्यन्ते 'कार्यद्रव्यत्वात् पटादिवदिति । अथ परमाणूनां तन्मात्रेभ्यः समुत्पत्तिरिति चेन्न । यत् कार्यद्रव्यं तत् स्वपरिमाणादल्पपरिमाणावयवैरारब्धं यथा पटः, कार्यद्रव्याणि च विवादापन्नानि तस्मात् स्वपरिमाणादल्पपरिमाणावयवैरारब्धानीति परं परया अकार्याणामेव परमाणुत्वसिद्धेः । तस्मात् प्रकृतेर्महानित्यादि सृष्टिक्रमकथनं गगनेन्दीवरमकरन्दव्यावर्णनमिव बोभूयते ।
[ ८२. प्रकृतिसाधकप्रमाणविचारः । ]
अपि च । प्रकृतेः प्रमाणप्रसिद्धत्वे सति सर्वमेतदुपपद्यते । न च सा केनचित् प्रमाणेन प्रसिध्यति ।
भेदानां परिमाणात् समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारण कार्यविभागादविभागाद् विश्वरूपस्य ॥
( सांख्यकारिका १५ ) इत्यादिहेतुभिर्विश्वस्य किंचित् कारणमस्तीत्यनुमीयते । तच्च कारणं प्रकृतितत्वमिति निश्चीयत इति चेत् तत्र कारणमात्रं धर्मीकृत्यास्तित्वं होता है अतः वह किसी दूसरे कारण से उत्पन्न नही है । प्रत्येक कार्य का परिमाण कारण के परिमाण से अधिक होता है। परमाणु से अल्प परिमाण की वस्तु विद्यमान नही है अतः परमाणु किसी वस्तु के कार्य नही हैं । अतः प्रकृति से महाभूतों तक सृष्टि की जो प्रक्रिया सांख्यों ने कही है वह निराधार सिद्ध होती है।
८२. प्रकृति साधक प्रमाणों का विचार - अब इस प्रक्रिया का मूलभूत जो प्रकृतितत्त्व है उसी का निरसन करते हैं । प्रकृति के अस्तित्व में सांख्यों ने निम्न हेतु बतलाये हैं- भेद परिमित हैं, भेदों में समन्वय पाया जाता है, प्रवृत्ति शक्ति के अनुसार होती है, कारण और कार्य में निश्चित विभाग है तथा विश्वरूप में विभाग नही है। इन सब कारणों से विश्वका कोई एक कारण होना चाहिये ऐसा प्रतीत होता है - उसे ही प्रकृति कहते हैं । किन्तु यह अनुमान ठीक नही है । जगत में जो भी कार्य हैं उन के कारण होते हैं यह तत्व हमें भी मान्य है - तदनुसार बुद्धि,
१ विश्वरूपं कार्यं भवितुमर्हति भेदानां वुम्भकमलादीनां परिमाणात्, विश्वरूपं कार्य भवितुमर्हति समवायादित्या दि ज्ञेयम् । २ प्रकृतिः । ३ कार्यस्य ।
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