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सांख्यदर्शन विचारः
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वा । प्रथमपक्षे असिद्धो हेतुः । बुद्धयादिपृथिव्यादीनां परस्परं व्यावृत्तत्वेनैव प्रमितत्वात् | नो चेदिष्टानिष्टवस्तुषु जनानां प्रवृत्तिनिवृत्तिव्यवहारो न जाघट्यते । 'द्वितीयपक्षेऽप्यसिद्ध एव । घटपटल कुटमुकुटशकटादिषु च्छेद्यत्वदर्शनात् । अनैकान्तिकश्च आत्मनोऽछेद्यत्वेऽपि प्रकृतिजन्यत्वाभावात् । ततः प्रसाधकप्रमाणाभावात् तस्य' खरविषाणवद्भाव एव स्यात् । [ ८३. सत्कार्यवादविचारः । ]
तदभावेऽपि कारणे विद्यमानमेव महदादि कार्यमाविर्भवतीति नोपपनपद्यते । कारणे कार्य सद्भावावेदकप्रमाणाभावात् । ननु तदावेदकप्रमाणमस्त्येव
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असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम् ॥ इति चेन्न । तेषां हेतुनामनेकदोषदुष्टत्वेन सत्कार्यप्रसाधकत्वासंभवात् । तथाहि । असदकरणादिति कोऽर्थः । ननु अविद्यमानस्य कार्यस्य खरविषाणवत् करणायोगात् सत् कार्यमिति चेन्न । तन्त्वादिष्व विद्यमानस्यैव
तथा पृथ्वी आदि ( अचेतन तत्व ) में विभाग प्रमाणसिद्ध है । यदि विभाग न होता तो इष्ट की प्राप्ति के लिए तथा अनिष्ट के परिहार के लिए प्रयत्न ही नहीं होता । अविभक्त का अर्थ अच्छेद्य मान कर भी यह हेतु सार्थक नही होता - घट आदि पदार्थ तो छेद्य हैं यह प्रत्यक्षसे सिद्ध है । दूसरे, आत्मा अच्छेद्य होने पर भी प्रकृति से उत्पन्न नहीं हैं । अतः विश्वरूप के अविभाग से भी प्रकृति की सिद्धि नही होती ।
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८२. सत्कार्य वादका विचार - सांख्य मतका दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है कारण में ही कार्य का विद्यमान होना । इस के समर्थन में उन्हों ने निम्न हेतु प्रस्तुत किये हैं, 'असत् का निर्माण नही होता, उपादान कारण से ही कार्य होता है, सब सम्भव नही है ( कारण से ही कार्य होता है ), शक्तियुक्त कारण से ही शक्य कार्य होता है तथा कारण विद्यमान है – इन सब हेतुओं से कारण में कार्य का अस्तित्व स्पष्ट होता है'। इन का अब क्रमशः विचार करते हैं ।
१ प्रकृतितत्त्वस्य । २ कारणे सदेव कार्यम् आविर्भवति अकरणात् उपादानग्रहणादित्यादि ।
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