________________
-७३]
प्रमाणविचारः
२४१
Aawani
प्रथमाक्षसंनिपातजं ज्ञानं युक्तावस्थायां योगिज्ञानं चेति । इति प्रत्यक्षप्रमाणलक्षणभेदसामग्रीस्वरूपमिति चेन्न । तस्य सर्वस्य विचारासहत्वात् । __ तथा हि । तत्र सम्यगपरोक्षानुभवसाधनमित्यत्र परोक्षानुभवप्रतिषेधेन अभावोऽङ्गीक्रियते प्रत्यक्षानुभवो वा । प्रथमपक्षे सम्यगभावसाधन प्रत्यक्षमित्युक्तं स्यात् । तथा च मुद्गरप्रहरणादीनां घटाद्यभावसाधनत्वेन जानता हो। उदाहरणार्थ-वस्त्रादि द्रव्यों का ज्ञान चक्षु और स्पर्श के संयोग सम्बन्ध से होता है; पटत्व आदि का ज्ञान संयुक्त समवाय सम्बन्ध से होता है; संख्यात्व आदि का ज्ञान संयुक्त समवेत समवाय से होता है; शब्द का ज्ञान कर्णेन्द्रिय के समवाय सम्बन्ध से होता है तथा शब्दत्व का ज्ञान समवेत समवाय से होता है। इन पांच सम्बन्धों से सम्बद्ध पदार्थों के दृश्याभाव तथा समवाय का ज्ञान विशेषणविशेष्यभाव नामक छठे सम्बन्ध से होता है-यह जमीन घटरहित है, यह वस्त्र रूपादिसहित है आदि इस के उदाहरण हैं। योगिप्रत्यक्ष वह है जो देश, काल तथा स्वभाव से दूर के पदार्थों को भी जानता है । ये दोनों प्रत्यक्ष सविकल्पक तथा निर्विकल्पक दो प्रकार के होते हैं। संज्ञा आदि संबन्ध के उल्लेख के साथ जो ज्ञान होता है वह सविकल्पक है-उदा. यह देवदत्त दण्डयुक्त है आदि । सिर्फ वस्तु के स्वरूप का भान होना निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है जो इन्द्रिय का पदार्थ से प्रथम सम्पर्क होते ही होता है तथा योगयुक्त अवस्था में योगी को होनेवाला ज्ञान भी इसी प्रकार का होता है।
___यह सब प्रमाण-विवरण कई दृष्टियों से सदोष है। पहले प्रत्यक्ष के लक्षण का विचार करते हैं । अपरोक्ष अनुभव के साधन को प्रत्यक्ष कहा है। इस में अपरोक्ष शब्द का तात्पर्य परोक्ष ज्ञान के अभाव से है अथवा प्रत्यक्ष के अस्तित्व से है ? यदि परोक्ष ज्ञान के अभाव से ही तात्पर्य हो तो वह मुद्गर, आयुध आदि में भी होता है अतः उन को प्रत्यक्ष प्रमाण मानना होगा। प्रत्यक्ष अनुभव का साधन प्रत्यक्ष प्रमाण है यह
१ अप्रधान विधेयेऽत्र प्रतिषेधे प्रधानता । प्रसज्य प्रतिषेधोऽसौ क्रियया यत्र नञ् यथा ॥ ब्राह्मणं नानय ॥ प्रधानत्वं विधेर्यत्र प्रतिषेधेऽप्रधानता। पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोक्तरपदेन न ॥ यथा अब्राह्मणमानय । वि.त.१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org