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मीमांसादर्शनविचारः
२५७ तदुक्त प्रकारेण याथात्म्यासंभवात् तन्मतानुसारिणां तत्वज्ञानाभावात् स्वर्गापवर्गप्राप्तिर्नोपपनीपद्यते । [७९. वैदिककर्मनिषेधः।
ननु वेदमधीत्य तदर्थ ज्ञात्वा तदुक्तनित्यनैमित्तिककाम्यनिषिद्धानुष्ठानक्रमं निश्चित्य तत्र विहितानुष्ठाने यः प्रवर्तते तस्य स्वर्गापवर्गप्राप्तिोभूयते। तथा हि। त्रिकालसंध्योपासनजपदेवर्षिपितृतर्पणादिकं नित्यानुष्ठानम् । दर्शपौर्णमासीग्रहणादिषु क्रियमाणं नैमित्तिकानुष्ठानम्। तद् द्वयमपि नियमेन कर्तव्यम् । कुतः अकुर्वन् विहितं कर्म प्रत्यवायेन लिप्यते।
[ मनुस्मृतिः ११.४४ ] इति वचनात्। कारीरिपुत्रकाम्येष्टयादिकमैहिकं काम्यानुष्ठानम्। ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत इत्यादिकमामुष्मिक काम्यानुष्ठानम्। श्येनेनाभिचरन् यजेत इत्यादिकं निषिद्धानुष्ठानम् । तत्क्रम निश्चित्यैतेष्वनुष्ठानेषु विहितानुष्ठाने यः प्रवर्तते स स्वर्गापवर्गों प्राप्नोति । अपि च नही हैं। अतः इस मत के अनुसरण से तत्त्वज्ञान या स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती।
७९. वैदिक कर्म का निषेध-मीमांसक दर्शन का मुख्य मन्तव्य यह है कि वेद का अध्ययन कर उस में कहे हुए विहित कर्म करने से ही स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति होती है। दिन में तीन बार सन्ध्या, जप, देव, ऋषि तथा पितरों का तर्पण आदि नित्य कर्म हैं । दर्श (अमावास्या), पौर्णिमा, ग्रहण आदि अवसरों पर दान आदि करना नैमित्तिक कर्म है। ये दोनों कर्म नियम से करना चाहिये क्यों कि 'विहित कर्म न करने से हानि होती है। ऐसा वचन है। काम्य कर्म दो प्रकार का है। वर्षा के लिये अथवा पुत्र के लिये इष्टि करना यह ऐहिक काम्य कर्म है। . स्वर्ग के लिये ज्योतिष्टोम यज्ञ करना इत्यादि पारलौकिक काम्य कर्म है।। श्येन द्वारा अभिचार ( मारण) के लिये यज्ञ करना यह निषिद्ध कर्म है। इन सब कर्मों का क्रम समझ कर विहित कर्म करने से स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त होते हैं। मोक्ष के लिये संन्यास की भी आवश्यकता नही क्यों कि 'जो
१ इहलौकिकम् । २ पारलौकिकम् । ३ मारणं कुर्वन् । वि.त.१७
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