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न्यायमतोपसंहारः
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नित्यादीनां प्रमाणान्तरत्वं प्रसज्यते। तस्मादुपमानं प्रत्यभिज्ञानानार्थान्तर मित्यङ्गीकर्तव्यम् । दर्शनस्मरणकारणकं प्रत्यभिज्ञानम् । उपमानस्यापि दर्शनस्मरणकारकत्वाविशेषात् । तस्मान्नैयायिकोक्तप्रमाणपदार्थो न विचारं सहते। [७५. तन्मते पदार्थगणनासंगतिः। ]
तथा 'आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम्' (न्यायसूत्र १-१-९) इति द्वादशविधप्रमेयपदार्थो वैशेषिकोक्तषट्पदार्थनिराकरणेनैव निराकृत इति वेदितव्यम् । तथा साधारणा. कारदर्शनात् वादिविप्रतिपत्तेर्वा उभयकोटिपरामर्शः संशयः इत्येतस्यापि पदार्थत्वे विपर्यासानध्यवसाययोरपि पदार्थत्वं प्रसज्यते । ननु संशयस्य न्यायप्रवृरयङ्गत्वेन पदार्थत्वं नान्ययोरिति चेन्न । विपर्यस्ताव्युत्पन्नाना प्रतिबोधार्थमपि न्याय प्रवृत्तिदर्शनात्। तथा प्रयोजनमपीष्टानिष्टप्राप्ति परिहाररूपं चेदिष्यत एव । तथा दृष्टौ अन्तौ साध्यसाधनधर्मों' वादि. प्रतिवादिभ्यामविगानेन यत्र स दृष्टान्तः। स च अवयवेष्वपि वक्ष्यहोगा । उपमान और प्रत्यभिज्ञान दोनों दर्शन और स्मरण पर आधारित हैं अतः दोनों में कोई भेद नही है । तात्पर्य-न्यायमत का प्रमाण वर्णन उचित नही है।
७५. पदार्थ गणनामें असंगति-इस दर्शन में दूसरे प्रमेय पदार्थ में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख तथा अपवर्ग इन बारह विषयों का समावेश किया है (न्यायसूत्र १-१-९)। इन के स्वरूप का खण्डन वैशेषिक दर्शन विचार में हो चुका है।
तीसरा पदार्थ संशय है । दो वस्तुओं में साधारण आकार देखने से अथवा वादियों में मतभेद होने से दोनों पक्षों का ग्रहण करनेवाला ज्ञान संशय कहलाता है। इस को स्वतन्त्र पदार्थ मानें तो विपर्यास और अनध्यवसाय ( अनिश्चय ) को भी पदार्थ मानना होगा। संशययुक्त व्यक्ति को समझाने के लिये न्याय की प्रवृत्ति होती है अतः संशय को पदार्थ
१ अतस्मिस्तदिति ज्ञानं विपर्ययः गच्छतस्तुणस्पर्शोनध्यवसायः । २ नानुपलब्धे न निर्णीतेथे न्यायः प्रवर्तते अपि तु संदिग्धेर्थे । ३ न्यायोऽनुमानम् । ४ अन्वयव्यतिरेको । ५ अविवादेन। ६ प्रतिज्ञाहेतृदृष्टान्तोपनयनिगमनानि ।
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