________________
१४४
विश्वतत्त्वप्रकाशः
[४३
अज्ञानस्याभावादनन्यत्वम्। तथा च शुक्त्यशानं न रजतोपादानम् अभावत्वात् अन्योन्याभाववदिति समर्थितं भवति ।।
यदप्यन्यत् प्रथमतोभ्यधायि-शुक्तिकादौ प्रतीयमानं रजतादिकं सद्रूपं न भवति आत्मवदबाध्यत्वप्रसङ्गात् असदुरूपं न भवति खरविषाणवदप्रतिभासप्रसङ्गात् अपि तु सदसद्विलक्षणमनिर्वाच्यमिति प्रतीतिबाधाभ्यां परिकल्पत इति-तदप्यसारम् । शुक्तिरजतादेः प्रमातृवेद्यत्वाभावेन प्रतिभासासंभवात् । बाधासंभवश्व कुतः ? प्रमातृवेद्यत्वाभावेनैव। ननु शुक्तिरजतादेः साक्षिवेद्यत्वात् प्रतिभासोस्तीति चेत् तर्हि साक्षिण एव भ्रान्तिः स्यात् । न प्रमातृणाम् । एकस्य शुक्तौ रजतप्रतिभासे अन्यस्य भ्रान्तिरिति विप्रतिषेधात् । ननु साक्षिणः सकाशात् प्रमातृणामन्यत्वाभावात् न तद्विप्रतिषेध इति चेन्न । साक्षिपुरुषस्य ब्रह्मसाक्षात्कारसद्भावेन प्रमातृणामपि तत्प्रसंगात् । तथा च संसाराभाव एव स्यात् । न चैवं, तस्मात् साक्षिणः सकाशात् प्रमातृणां भेद एव। तथा च
इस चर्चा के पूर्वपक्ष में जो यह कहा है कि यह चांदी प्रतीत होती है यह सत् नही है क्यों कि सत् हो तो वह आत्मा के समान अबाधित रहेगी, तथा असत् भी नही है क्यों कि असत् हो तो गधे के सींग के समान प्रतीत ही नही होगी अतः वह सत् और असत् दोनों से भिन्न अनिर्वाच्य है - यह कथन उचित नही है। वेदान्त मत में इस चांदी को प्रमाता द्वारा वेद्य नहीं माना है। जो प्रमाता द्वारा जानी नही जाती वह प्रतीत होती है या बाधित होती है यह कहना कैसे सम्भव है ? यह चांदी प्रमाता द्वारा वेद्य नही किन्तु साक्षी (परमात्मा) द्वारा वेद्य है अतः उस की प्रतीति और बाध सम्भव हैं यह कथन भी ठीक नहीं । यदि यह चांदी साक्षी द्वारा वेद्य है तो भ्रम भी साक्षी को ही होगा - प्रमाता को भ्रम होना सम्भव नही । साक्षी और प्रमाता भिन्न नही हैं अत: यह आपत्ति नही आती - यह कथन भी ठीक नही। साक्षी और प्रमाता यदि भिन्न नही तो साक्षी के ब्रह्मसाक्षात्कार से प्रमाता को ब्रह्मसाक्षात्कार क्यों नही हो जाता? दोनों के ब्रह्मसाक्षात्कार में भेद है अतः दोनों
१ अज्ञानम् अभाव एव इति जैनैः स्थापितम्। २ इदं रजतमिति प्रतीतिः नेदं रजतमिति बाधा । ३ अनिर्वाच्यस्य । ४ ब्रह्मणः वेद्यत्वं साक्षिवेद्यत्वं । ५ विरोधात् । ६ अभेदात् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org