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-६०] आत्माणुत्वविचारः
२०५ त्वात् । तत् कथमिति चेदुच्यते। मनो नाणुपरिमाणं ज्ञानकरणत्वात् इन्द्रियत्वात् दुःखत्वात् चक्षुर्वदित्यनुमानात्।
हिदि होदि हु दव्वमणं वियसियअट्ठच्छदारविंदं वा। अंगोवंगुदयादो मणवग्गणखंददो णियमा ॥
(गोम्मटसार, जीवकाण्ड ४४३) इति वचनाच्च ।
आत्मनो अणुपरिमाणत्वे पादाभ्यां गच्छामि पाणिभ्यामाहरामि चक्षुा पश्यामि श्रोत्राभ्यां शृणोमि पादे मे वेदना शिरसि मे वेदना जठरे मे सुखमिति बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियाङ्गोपाङ्गेषु युगपदनुसंधानं न स्यात् । अथ यथा एकस्मिन् देशे एको राजा. प्रादेशिकत्वेनैकत्र स्थित्वा स्वकीयवाहिरैः स्वदेशे इष्टानिष्टप्राप्यादिकं युगपत् ज्ञात्वा सुखदुःखादिकमपि युगपत् प्राप्नोति तथा एकस्मिन्नपि देहे एक एव जीवः प्रादेशिक त्वेनैकत्र स्थित्वा स्वकीयवार्ताहरैर्बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियैरिटानिष्टप्राप्यादिकं युगपत् ज्ञात्वा सुखदुःखादिकमपि युगपत् प्राप्नोतीति चेत् तदसत् । तत्रत्यवार्ताहरा पृथक् सचेतनाः अत एव राजानं प्रत्यागत्य वार्ता समान ज्ञान का साधन है, इन्द्रिय है तथा दुःखरूप है। इस विषय में आगम का वचन भी है - ' हृदय में द्रव्यमन होता है। यह फूले हुए आठ पांखुडियों के कमल जैसा होता है। अंगोपांग नाम कर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्धों से यह बनता है।'
यदि आत्मा अणु आकार का होता तो मैं पांवसे चलता हूं, हाथ से लेता हूं, आंखों से देखता हूं आदि भिन्न भिन्न प्रतीति एक समय न होती। इस के उत्तर में वेदान्तियों का कथन है - जैसे कोई राजा एक स्थान पर बैठकर अपने वार्ताहर जगह जगह नियुक्त करता है तथा उन से भिन्न भिन्न समाचार मिलने पर उसे एक साथ सुख और दुःख का अनुभव होता है उसी प्रकार जीव एक प्रदेश में रह कर विभिन्न इन्द्रियों द्वारा इष्ट-अनिष्ट को जानता है और सुखदुःख को प्राप्त करता है। किन्तु यह कथन अनुचित है। राजा के वार्ताहर सचेतन
१ हृदि भवति स्फुटं द्रव्यमनः विकसित-अष्टपत्रकमलं वा साङ्गोपाङ्गकर्मोदयात मनोवर्गणासमूहात् नियमात् भवति । २ सर्वस्मिन् शरीरे सचेतनावष्टब्धम् अनुसंधानं न अस्ति स्यात् चानुसंधानम् । ३ राजसमीपस्थ ।
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