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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[६०विशापयितुं समर्थाः। अत्रत्यास्तु' वार्ताहरा बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियानापानाः सचेतना वा स्युरचेतना वा। सचेतनाश्चेदेकं शरीरं बहुभिश्चेतयितृभिर्जीवैरधिष्ठितं स्यात् । तथा च भिन्नाभिप्रायैर्बहुभिर्जीवैः प्रेरितं शरीरं सर्वदिक्क्रियमुन्मथ्येत अक्रियं वा प्रसज्येत । अपि च । बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियशिरोजठराद्यङ्गोपाङ्गाः सर्वेऽपि सचेतनाश्चेदात्मा अणुपरिमाणाधिकरणो न स्यात् अपि तु शरीरपरिमाणाधिकरण एव स्यात् । अथ ते' अचेतनाश्चेत् तर्हि वार्ताहरा इवागत्य जीवं प्रतीष्टानिष्टप्राप्त्यप्राप्त्यादिकं विज्ञापयितुमसमर्था एव अचेतनत्वात् नखरोमादिवत् । किं च । बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियशिरोजठराद्यङ्गोपाङ्गानां जीवावस्थितप्रदेश प्रति गमनाभावस्य प्रत्यक्षेण निश्चितत्वात् तेषां वार्ताहरत्वेन तं प्रति इष्टानिष्टप्राप्त्यप्राप्त्यादिविज्ञापन न जाघटीत्येव । ननु तेषां जीवावस्थितप्रदेशं प्रति गमनाभावेऽपि जीवः स्वयमेव बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रियशिरोजठराङ्गोपाङ्गान्युपेत्य तत्र तत्र प्राप्ताप्राप्तमिष्टानिष्टसाधनादिकं ज्ञात्वा निर्विशतीति चेन्न । सर्वाङ्गीणसुखस्य
और भिन्न भिन्न होते हैं अत: वे राजा के पास पहुंच कर समाचार दे सकते हैं; किन्तु इन्द्रिय और अंगोपांग सचेतन नही हैं । यदि वे सचेतन हों तो एक ही शरीर में कई सचेतनों के -- जीवों के अस्तित्व से दुरवस्था होगी - वे अलगअलग क्रिया करें तो शरीर भग्न हो जायगा अथवा निष्क्रिय होगा। दूसरे, ये सब अवयव सचेतन मानने का तात्पर्य आत्मा को ही शरीरव्यापी मानना होगा। यदि इन्द्रिय आदि अचेतन हैं तो वे जीव को इष्ट-अनिष्ट का ज्ञान करायें यह संभव नही है - वे नख, केश आदि की तरह इस कार्य में असमर्थ हैं। दूसरे, इन्द्रिय अपने प्रदेश से जीव के प्रदेश तक नही जाते यह प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है । इन्द्रिय जीव के स्थान तक नही जाते किन्तु जीव ही इन्द्रियों के स्थान तक पहुंच कर इष्ट-अनिष्ट का ज्ञान कर लेता है यह कथन भी अनुचित है। ऐसा मानने पर सब शरीर में एक साथ सुख या दुःख का अनुभव संभव नही होगा। सब शरीर में एक साथ सुख या दुःख का अनुभव नही होता यह कथन भी ठीक नही । कलाकुशल सुन्दर स्त्री के आलिंगन द्वारा
१ आत्मसमीपस्थ। २ बुद्धयादयः।
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