________________
-६५] गुणविचारः
२२१ [६५, संख्यादीनां गुणत्वनिरासः।]
तथा संख्याया गुणत्वमपि नोपपनीपद्यते । तथा हि। संख्या गुणो न भवति गुणादिषु प्रवर्तमानत्वात् व्यतिरेके गन्धवत् । ननु संख्यायाः गुणादिषु प्रवर्तमानत्वमसिद्धमिति चेन्न । चतुर्विंशति गुणाः पञ्च कर्माणि षट् पदार्था इति गुणादिषु संख्यायाःप्रवर्तनासद्भावात् । तथा पृथक्त्वमपि गुणो न भवति गुणाद्याश्रितत्वात् व्यतिरेके रूपवत् । नायमसिद्धो हेतुः रसाद् गन्धः पृथक् उत्क्षेपणादवक्षेपणं पृथगिति तदाश्रितत्वसद्भावात् ।
तथा अदृष्टमपि गुणो न भवति पौद्गलिकत्वात् तिलकादिवत् । ननु अदृष्टस्य पौद्गलिकत्वमप्यसिद्धमिति चेन्न। अदृष्टं पौद्गलिक पुद्गलसंबन्धेन विपच्यमानत्वात् वीह्यादिवत्' इति प्रमाणसद्भावात् । ननु अदृष्टस्य पुद्गलसंबन्धेन विपच्यमानत्वमप्यसिद्धमिति चेन्न । शुभा
६५. संख्यादि गुण नहीं है—वैशेषिकों ने गुणों की जो गणना की है वह भी दोषपूर्ण है। वे संख्या को गुण मानते हैं किन्तु संख्या गुणों में भी पाई जाती है । न्यायमत में ही चौवीस गुण, पांच कर्म, छहं पदार्थ आदि व्यवहार रूढ है। अतः गुणों पर आश्रित होने से संख्या गुण नही हो सकती (गुण द्रव्यों पर आश्रित होते हैं तथा स्वयं गुणरहित होते हैं )। इसी प्रकार न्यायमत में पृथक्त्व
को गुण माना है किन्तु पृथक्त्व भी गुणों में विद्यमान है-रस से गन्ध पृथक् है, उत्क्षेपण से अवक्षेपण पृथक् है आदि व्यवहार रूढ है, अतः पृथक्त्व गुण नही हो सकता ।
अदृष्ट तिलक आदि के समान पौद्गलिक है अतः अदृष्ट भी गुण नही हो सकता। अदृष्ट को पौद्गलिक कहने का कारण यह है कि उस का फल पुद्गल के सम्बन्ध से ही मिलता है-अदृष्ट के फलस्वरूप जीव को सुखदुःख का जो अनुभव होता है वह पुद्गलनिर्मित शरीर, इन्द्रिय,
१ यस्तु गुणो भवति स तु गुणादिषु न प्रवर्तते यथा गन्धः निर्गुणाः गुणाः इति वचनात् ।२ यस्तु गुणो भवति स गुणादिषु आश्रितो न भवति यथा रूपम् । ३धर्माधमौं। ४ यथा ब्रीह्यादिः जलादिपुद्गलसंबन्धेन विपच्यते।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org