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मायावादविचारः
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प्रथम हेतोर्ब्रह्मणा व्यभिचारात् । कुतः 'सर्वप्रत्ययवेद्ये वा ब्रह्मरूपे व्यवस्थिते ' ( ब्रह्मसिद्धि ४-३ ) इति स्वयमेवाभिधानात् । तस्य वेद्यत्वेऽपि जडत्वाभावात् । द्वितीयहेतोरसिद्धत्वाच्च । कथम् । तच्चैतन्यस्योत्पत्तिमत्वाभावेन हेतोरसिद्धत्वात् । तदुत्पत्तिमत्वाभावः कथम् । - ' नित्यं ज्ञानमानन्दं ब्रह्म' - इति श्रुतेः । प्रमित्यादिकं नोत्पत्तिमत् चिद्रपत्वात् ब्रह्मस्वरूपवदित्यनुमानाच्च । जातिदूषणाच्च । कुतः प्रत्यनुमानेन प्रत्यवस्थानं प्रकरण समा जातिरिति वचनात् । अपि च । ' सर्व वै खल्विदं ब्रह्म ', ' पुरुष एवेदं यद् भूतं यच्च भाव्यम्' इत्यादिभिः श्रुतिभिः प्रपञ्चस्य ब्रह्मात्मकत्वसिद्धिः । जडत्वादिति स्वरूपासिद्धो हेतुः स्यात् ।
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[ ४५. प्रपञ्चमिथ्यात्वनिषेधः । ].
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किं च । प्रपञ्चो मिथ्या इत्यसवं प्रसाध्यते अनिर्वचनीयत्वं वा । प्रथमपक्षे मायावादिनामपसिद्धान्तः २ शून्यवादिमतप्रवेशश्च । द्वितीयपक्षे अनुमान है । किन्तु यह उचित नहीं । प्रमिति के समान ब्रह्म भी ज्ञात होता है - जैसे कि कहा है - सब प्रत्ययों से ब्रह्मरूप ही ज्ञात होता है ', अतः ब्रह्म के समान प्रमिति को भी चेतन समझना चाहिए । प्रमिति आदि उत्पन्न होती हैं यह कथन भी ठीक नही क्यों कि चैतन्य कभी उत्पन्न नहीं होता, नित्य होता है जैसे कि कहा है • नित्य ज्ञान और आनन्द ही ब्रह्म का स्वरूप है ' । प्रपंच को ब्रह्म का ही रूप बतलानेवाले उपनिषद्-वचन पहले उद्धृत किये हैं उन से भी प्रपंच का जड होना असत्य सिद्ध होता है । प्रपंच जड नही है अतः वह मिथ्या भी नही हैं
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४५. प्रपञ्च मिथ्या नही है – वेदान्ती प्रपंच को मिथ्या कहते हैं तब उन का तात्पर्य प्रपंच को असत् कहने का है या अनिर्वचनीय कहने का है ? वे प्रपंच को असत् नही मान सकते क्यों कि यह उन के मत के विरुद्ध शून्यवाद का समर्थन होगा । ररसी में सांप की प्रतीति
१ जातिदूषणं कुतः प्रत्यनुमानात् । अस्मत्कृतानुमानं संगृह्य प्रत्यवस्थानं क्रियते यतः संशयः। दिव्यवच्छेदाय परानपेक्षत्वात् परेण प्रोक्तं प्रमित्यादिकं जडं वेद्यत्वात् इति प्रत्यनुमानं प्रकरणसमा जातिः । २ मायावादिमते प्रपञ्चस्य असत्त्वं न विद्यते ।
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