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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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स्वभार्या परिच्छिन्दत् प्रत्यक्षं भार्याभावं तदभावाश्रयं स्वजनन्यादिकं व्यवच्छिन्ददेव परिच्छिनत्ति । तदव्यवच्छेदाभावे स्वजनन्यादिपरिहारेण भार्यायां पुंसः प्रवर्तनासंभवात् । अथ यथा स्वप्नावस्थायां विड्गोमयमूत्रादीन परिहत्य मोदकपायसक्षीरादी जीवाः प्रवर्तन्ते तथा जाग्रददशायामपि प्रवर्तनायाः संभवान्न प्रमाणनिबन्धनेयं प्रवर्तनेति चेत् तर्हि स्वप्नावस्थायां मेदप्रतीतिसभावात् तथा जाग्रदशायामपि भेदप्रतिभासोऽस्तीति प्रतिपादितं स्यात् । ननु स्वप्नावस्थायां भेदप्रतिभाससद्भावेऽपि स्वप्नप्रपञ्चस्य भ्रान्तत्वात् तत्र प्रतीयमानभेदप्रवर्तनयो यथा भ्रान्तत्वं तथा जाग्रदशायामपि प्रतीयमानभेदप्रवर्तन योन्तित्वमित्यभिप्राय इति चेन्न । सत्यमबाध्य बाध्यं मिथ्येत्यद्वैतवादिभिरेवाभिहितत्वात् । तथा च स्वप्नावस्थायां भेदप्रत्ययप्रवर्तनयोरुद्बोधो बाधकोऽस्तीति अप्रमाणनिबन्धनत्वं युक्तम् । जापददशायां तु भेदप्रत्ययप्रवर्तनयोधिकाभावात् प्रमाणनिबन्धनत्व.. मेवेति नाप्रमाणनिबन्धनत्वं वक्तुं युक्तम्। ननु जाग्रदशायामपि भेदभी होता ही है। यदि ऐसा भेद का ज्ञान न होता तो गोबर छोडकर खीर के विषय में लोगों कीप्रवृत्ति नही होती। इसी प्रकार पत्नी के ज्ञान में माता से उस की भिन्नता का ज्ञान भी विद्यमान है। यदि यह भेद का ज्ञान न हो तो पत्नी के विषय में पुरुष की प्रवृत्ति होती है - माता के विषय में नही होती यह भेद संभव नही होगा । यह सब भेद स्वप्न में भी प्रतीत होता है किन्तु स्वप्न भ्रान्तिमय है - अत: उन के समान जागृत अवस्था की यह भेदप्रतीति भी अप्रमाण है यह वेदान्तियों का कथन भी उचित नही। इस कथन में तो यह स्पष्ट स्वीकार होता है कि ( स्वप्न के समान ) जागृत अवस्था में भी भेद का ज्ञान होता है। स्वप्न-ज्ञान के समान यह जागृतज्ञान भी भ्रान्त है - यह वेदान्तियों का तात्पर्य है। किन्तु यह उचित नही । भ्रान्त ज्ञान वह है जो बाधित होता है, जो ज्ञान बाधित नही होता वह सत्य होता है यह तो उन्हें भी मान्य है । स्वप्न-ज्ञान का बाधक जागृत-ज्ञान है अतः स्वप्न-ज्ञान मिथ्या है। किन्तु जागृत-ज्ञान का बाधक कौन है जो उसे मिथ्या कहा जाय ? जागृत अवस्था के प्रपंच-ज्ञान का
१ भेदज्ञानभेदसहितप्रवर्तनयोः । २ जागरणम् ।
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