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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[५१[५१. प्रतिशरीरं जीवपृथक्त्वम् । ]
तथा क्षेत्रमा प्रतिक्षेत्र विभिन्ना एव भवन्ति एकस्मिन्नेव काले एकस्मिन् वस्तुनि अयं तत्त्ववेदी अयं मिथ्याशानी अयं रागी अयं विरक्त इत्यादिव्यवस्थान्यथानुपपत्तेः । ननु प्रतिक्षेत्रं क्षेत्रझमेदाभावेऽपि अन्तःकरणानां प्रतिक्षेत्रं भेदसद्भावात् तदाश्रितत्वेनैव व्यवस्थोपपत्तेरापत्तेरन्यथैवोपपत्तिरिति चेन । अन्तःकरणं धर्मि तत्ववेदि मिथ्याज्ञानि इत्यादि व्यवस्थाभाजनं न भवति जडत्वात् जन्यत्वात् करणत्वात् अविद्याकार्यस्वात् चक्षुरादिवदिति अन्तःकरणस्य प्रमाणादेव व्यवस्थाभाजनत्वानुपपत्तेरर्थापत्तेर्नान्यथोपपत्तिः। ननु मम श्रोत्रं सम्यग् जानाति चक्षुर्विपरीतं जानातीत्येकात्माधिष्ठितेषूपाधिषु३ आत्मभेदाभावेऽपि व्यवस्थोपलभ्यत इति चेन्न । एकस्मिन् वस्तुनीत्युक्तत्वात् । किं च । श्रोत्रादीनां ज्ञातृत्वाभावेन सम्यमिथ्याशानित्वानुपपत्तेः। अथ श्रोत्रादीनां ज्ञातृत्वाभावः
५१. प्रत्येक शरीर में भिन्न आत्मा है - प्रत्येक शरीर में भिन्न भिन्न आत्मा है, आत्मा एक ही होता तो एक ही समय में यह तत्त्वज्ञ है तथा मिथ्या ज्ञानी है, यह आसक्त है तथा विरक्त है इस प्रकार परस्पर विरुद्ध व्यवहार संभव नही होता । तत्त्वज्ञ आदि सब भेद अन्तःकरण के हैं - प्रत्येक शरीर में भिन्न भिन्न अन्तःकरण हैं किन्तु आत्ना सब में एक ही है यह कथन भी अनुचित है । अन्तःकरण चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियों के समान जड, उत्पत्तियुक्त, साधनभूत तथा अविद्या का कार्य है अतः यह तत्त्वज्ञ है या मिथ्याज्ञानी है यह व्यवहार अन्तःकरण के विषय में सम्भव नही । आत्ता के एक ही होने पर भी कान से यथार्थ ज्ञान हुआ, चक्षुसे गलत ज्ञान हुआ यह भिन्न व्यवहार संभव है उसी प्रकार तत्त्वज्ञ और मिथ्याज्ञानी यह व्यवहार भी एक ही आत्मा में होता है यह कथन भी सदोष है । एक दोष तो यह है कि इस उदाहरण में कान और आंख
१ एकस्मिन् आत्मनि अयं तत्त्ववेदो अयं मिथ्याज्ञानीति व्यवहारानुपपतेः । २ प्रतिक्षेत्रात्मभिन्नत्वमन्तरेण ।३ चक्षुःश्रोत्रादिषु । ४ सत्र एकस्मिन् आत्मनि सति अपं तत्त्ववेदीत्यादि उक्तत्वात् । ५ सम्याज्ञानित्वं मिथ्या ज्ञानिस्त्रं च ।
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