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-५४] मायावादविचारः
१८५ तथा तस्य प्रमाणगोचरत्वे दृश्यत्वाद् बाध्यता भवेत् । प्रमाणगोचरत्वाभावे तदस्तीति प्रमातृभिः कथं निश्चीयेत। अथ ब्रह्मस्वरूपस्य प्रमाणगोचरत्वाभावेऽपि तत् स्वत एव प्रकाशते इति चेत् तत् स्वतः प्रकाशत इत्येतदपि प्रमातृभिः कथं निश्चीयते। प्रमातणां तद्ग्राहकप्रमाणस्याप्यसंभवात् । किं च । 'सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते' इति न्यायात् तद्ब्रह्मस्वरूपसद्भावः प्रमातृभिर्न निश्चीयते तद्धर्माः स्वतःप्रकाशमानत्वनित्यत्वैकत्वविभुत्वादयः कथं निश्चीयेरन्। अथ स्वत:प्रकाशमानत्वनित्यत्वैकत्वविभुत्वादयोऽपि स्वत एव प्रसिद्धा न प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरा इति चेत् तर्हि तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् तत् सर्व प्रमातृभिः कथं ज्ञायेत । ननु 'नित्यं ज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्यादिश्रुत्या ज्ञायत इति चेत् तर्हि आगमप्रमाणगोचरत्वेन दृश्यत्वाद् बाध्यता भवेत् । ____ ननु तदुपनिषद्वाक्यस्य ब्रह्मस्वरूपोपलक्षकत्वमेव न वाचकत्वं' ब्रह्म का स्वरूप प्रमाण से सिद्ध नही होता किन्तु स्वतः प्रकाशमान है यह कहने पर प्रश्न होता है कि प्रमाता उस स्वरूप के प्रकाशमान होने को कैसे जानते हैं ? प्रमाता यदि प्रमाण से ब्रह्म के स्वरूप को नही जानते तो उस के स्वतः प्रकाशमान होने को भी नही जान सकते । यह साधारण न्याय है कि 'धर्मी हो तभी उस के धर्मों का विचार किया जाता है।' यहां प्रमाताओं को प्रमाण से ब्रह्म के स्वरूप के अस्तित्व का ही ज्ञान नही होता । अतः उस ब्रह्म के गुणधर्म - प्रकाशमान होना, नित्य होना, एक होना, व्यापक होना आदि का निश्चय कैसे होगा ? ये सब गुणधर्म भी स्वतः सिद्ध हैं यह मानने पर भी प्रश्न होता है कि प्रमाता किस प्रमाण से इन्हें जानेंगे ? 'ब्रह्म नित्य, ज्ञान तथा आनन्दरूप है ' आदि वेदवचनों से यह ब्रह्मस्वरूप ज्ञात होता है यह कथन भी संभव नही । इस का तात्पर्य यह होगा की ब्रह्म आगमप्रमाण का विषय है तथा जो प्रमाण विषय है वह दृश्य तथा बाधित होता है यह वेदान्तमत है - इन में संगति नही होगी।
उपनिषदवचन ब्रह्म के उपलक्षक हैं - वाचक नही; गंगा में घोष
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१ ब्रह्मणः । २ धर्मिणः ब्रह्मणः अभावात् तद्धर्माः कथं निश्चीयंते। ३ द्योतकत्वम् । ४ अर्थप्रमितिजनकत्वम् ।
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