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विश्वतत्त्वप्रकाश
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इति चेन्न । तथापि हेतोर्मनसा व्यभिचारात् । अथ तव्यवच्छेदार्थ मनोन्यत्वे सति सदा स्पर्शरहितद्रव्यत्वादित्युच्यत इति चेन्न । तथापि हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् ।
तत् कुत इति चेत् पादाभ्यां गच्छामि पाणिभ्यामाहरामि चक्षुा पश्यामि श्रोत्राभ्यां शृणोमि पादे मे वेदना शिरसि मे वेदना जठरे मे सुखं शाताहं सुख्यहं दुःख्यहम् इच्छाद्वेषप्रयत्नवानहम् इत्यहमहमिकया शरीरमात्रे एवाहं ततो बहिर्नास्मीति निर्दुष्टमानसंप्रत्यक्षेण स्वयमेव निश्चितत्वात् । यदि शरीराद् बहिरप्यस्ति तर्हि स्वविशेषगुणविशिष्टतया तथा प्रतीयेत । अथ यत्र शरीरन्द्रियान्तःकरणसंबन्धस्तत्र मानसप्रत्यक्षेणात्मा तथा प्रतीयते नान्यत्रेति चेत् तर्हि सकलवनस्पतित्रसमृगपशुपक्षिदेवना. रकमनुष्यशरीरादिष्वयमात्मा मानसप्रत्यक्षेण तथा प्रतीयेत । तत्तच्छरीरेन्द्रियान्तःकरणवत् तेषामपि स्वात्मना संयोगसद्भावात् । ननु तेषां स्वात्मना संयोगेऽपि स्वकीयत्वाभावात् तत्र तथा न प्रतीयत वे सर्वगत नहीं होते। आत्मा सर्वदा स्पर्शादिरहित द्रव्य है यह सुधार भी पर्याप्त नही है। मन सर्वदा स्पर्शादिरहित है किन्तु सर्वगत नही है।
मन का अपवाद कर के भी यह अनुमान सफल सिद्ध नही होगा क्यों कि इस का साध्य प्रतीतिविरुद्ध है। मैं सुखी हं, दुःखी हूं आदि जितनी भी आत्म-विषयक प्रतीति है वह अपने शरीर में ही होती है --- बाहर नही होती। यदि आत्मा का अस्तित्व बाहर भी होता तो ऐसी प्रतीति भी वहां होती। जहां शरीर, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण का सम्बन्ध है वहीं आत्मविषयक प्रतीति होती है - अन्यत्र नही होती यह उत्तर भी समाधानकारक नही है। मनुष्य, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि सभी जीवों के शरीर, इन्द्रिय, अन्तःकरण हैं, यदि एक आत्मा इन सब में व्यापक - सर्वगत है तो इन सब को एक आत्मा की प्रतीति होनी चाहिए। एक आत्मा इन सब में व्यापक होने पर भी उस का उन शरीरों आदि में स्वकीयत्व नही होता अतः उन में एक आत्मा की प्रतीति नही होती यह उत्तर भी पर्याप्त नही है। प्रश्न होता है कि इस आत्मा का यह
१ मनसः सदा स्पर्शरहितत्वेऽपि सर्वगतत्वाभावः। ३ सकलवनस्पतित्रसादिशरीरेन्द्रियान्तःकरणानाम् ।
२ बुद्धिसुखदुःखादि ।
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