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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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दुःखादिकं भुञ्जानस्तिष्ठति सकलशरीरेषु एक एव महेश्वरः सुखदुःखादि. कमभुआनः केवलं साक्षित्वेनान्तर्यामीति व्यपदेशभाक् प्रकाशमानस्तिष्ठति इत्येकस्यैव परब्रह्मणः उपाधयो भेदकाः।
कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः । कार्यकारणतां हत्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते ॥
___ (शुकरहस्योपनिषत् ३-१२) इत्यविद्ययैव प्रमातृभेद इति । तदयुक्तम् । अविद्यायाः प्रमातृभेदकत्वानुपपत्तः। कुतः मायाव्यतिरिक्ताया अविद्याया अभावात्। अथ ज्ञानपुण्यपापवासनारूपसंस्काराविशिष्टायाः मायाया एव अविद्यारूपत्वं तया कृतः प्रमातृभेद इति चेत् तर्हि अविद्यामेदः कुतः स्यात् । अथ प्रमातृभेदादविद्याभेद इति चेन्न । इतरेतराश्रयप्रसंगात् । कुतः। यावत् प्रमातृमेदो न जाघटीति तावदविद्याभेदोऽपि नोपपनीपद्यते, यावदविद्यामेदो नोपपद्यते तावत् प्रमातृभेदो न जाघटीतीति । अथ ज्ञानपुण्यपापवासनारूपसंस्कारहै - इन में जीव तो प्रत्येक शरीर में एकएक होता है तथा सुखदुखःका अनुभव करता है; किन्तु महेश्वर सब शरीरों में एक ही है तथा वह सुखदुःख का अनुभव नही करता - सिर्फ अन्तर्यामी साक्षी होता है। इस प्रकार एक ही परब्रह्म के दो उपाधियों से दो रूप होते हैं। जैसे कि कहा है - ' कार्यरूप उपाधि से युक्त चैतन्य जीव है तथा कारणरूप उपाधि से युक्त चैतन्य ईश्वर है, कार्य और कारण के दूर होने पर पूर्ण चैतन्य ही अवशिष्ट रहता है।' तात्पर्य - प्रमाताओं में भेद अविद्यामूल है।
वेदान्त मत का यह सब कथन उचित नही । माया और अविद्या में कोई अन्तर नही है अतः अविद्या से प्रमाताओं में भेद होता है यह कथन ठीक नही । पुण्य, पाप के वासनारूप संस्कार से विशिष्ट माया ही अविद्या है अतः उसके द्वारा प्रमाताओं में भेद होता है यह कथन भी पर्याप्त नही । इस पर प्रश्न होता है कि अविद्या में भेद कैसे हुआ ? संस्कार के भेद से अविद्या में भेद होता है यह कहने पर प्रश्न रहता है कि संस्कार में भेद कैसे हुआ ? प्रमाताओं के भेद से संस्कार में भेद
१ कार्यलक्षण उपाधिः कार्योपाधिः कारणलक्षण उपाधिः कारणोपाधिः ।
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