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मायावादविचारः
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पन्नागमाभावान्न कालात्ययापदिष्टत्वम् । उक्तहेतूनां विपक्षे त्रैरूप्याभावान्न प्रकरणसमत्वं च । तत्रतत्रान्वयदृष्टान्तेषु यथोक्तसाध्यसाधन सद्भावात व्यतिरेकदृष्टान्तेषु यथोक्तसाध्यसाधनानामभावाच्च न दृष्टान्तदोषोऽपीति ।
ननु प्रतिपक्षप्रसाधकानुमानानां बहूनां सद्भावाद् विरुद्धाव्यभिचारित्वमित्यपरो हेतुदोषः संपद्यते भवदुक्तहेतूनाम् । तथा हि । विवादाध्यासितानि शरीराणि उभयाभिमतेनैकात्मनाधिष्ठितानि जीवच्छरीरत्वात् संप्रतिपन्नशरीरवदिति चेत् । तत्र अधिष्ठितानीति कोऽर्थ उभयाभिमन आत्मना आश्रितानीति विवक्षितं तस्य भोगायतनानीति वा तेन संसृष्टानीति वा । न तावत् प्रथमपक्षः क्षेमकरः आत्मनो नित्यद्रव्यत्वेनान्याधितत्वानभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा अपसिद्धान्तप्रसंगात् । षण्णामाश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः' ( प्रशस्तपादभाष्य पृ. १६ ) इति स्वयमेवाभिधानात् । नापि द्वितीयः पक्षः श्रेयस्करः । सकलशरीराणामुभयाभिमतस्यात्मनो भोगायतनत्वे यथा संमतशरीरगतेन्द्रियजनितवर्तमान सुख दुःखसाक्षात्कारः प्रतीयते तथा सकलशरीरगतेन्द्रियजनितवर्तमान सुखदुःखसाक्षात्कारो भवेदेव । न चैवं, तस्मात् सकलशरीरा
उपर्युक्त विवरण के प्रतिकूल कुछ अनुमानों का अब विचार करते हैं । सब शरीर जीवत्-शरीर हैं अत: एक ही आत्मा द्वारा अधिप्रित हैं - यह अनुमान उचित नही । यहां अधिष्ठित से तात्पर्य क्या हैं ? आत्मा द्वारा आश्रित यह तात्पर्य संभव नही क्यों कि प्रतिपक्ष के मत के अनुसार नित्य द्रव्य आश्रित नहीं होते । जैसे कि कहा है - " नित्य द्रव्यों को छोड़कर छहों पदार्थ आश्रित होते हैं।' ये शरीर आत्मा के भोगायतन ( उपभोग के स्थान ) हैं यह तात्पर्य भी संभव नही क्यों कि एक ही आत्मा को सब शरीरों के सुखदुःखों का अनुभव नही होता यह पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं । इस आत्मा का सब शरीरों से सम्पर्क है यह तात्पर्य भी संभव नही क्यों कि ऐसा कथन प्रत्यक्षबाधित
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१ विरुद्धेन सह अव्यभिचारित्वं किंनाम विरद्ध हेतुरित्यर्थः । २ आत्मा तु उभयचादिमतोऽस्ति वादस्तु एक एव अनेक एव आत्मा अत्र वर्तते ।
वि. त. १२
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