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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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स्पर्शज्ञानं श्रोत्रेनैव शब्दज्ञानं जायत इति लौकिकैः परीक्षकैश्च निश्चितत्वात् । नन अद्वैतागीकारेण गोमयमोदकयोर्भेदाभावात् सर्वस्याविद्योपादान कारणत्वेन भिन्नसामग्रीजन्यत्वाभावाच्च उभयविकलो दृष्टान्त' इति चेन्न। भिन्नाभिधानप्रत्ययव्यवहारप्रतिनियमात् गोमयमोदकादीनां भेदस्य प्रागेव प्रमाणैः समर्थितत्वात् । गोमयस्य तृणादिविकारत्वेन गोगर्भादुत्पत्तेः यवकणिकखलेन गुडमिश्रेण मोदकपिण्डस्योत्पत्तेः लौकिकैः परीक्षकैश्च निश्चितत्वाच्च । ननु रूपरसादिज्ञानानां करणवृत्तिरूपत्वेन' स्वसंवेद्यत्वाभावात् साधनविकलो दृष्टान्त इति चेन। रूपरसादिक्षानं स्वसंवेद्य चेतनत्वात् स्वरूपवदिति स्वसंवेदनत्वसिद्धः। अथ रूपरसादि. ज्ञानस्य चेतनत्वमसिद्धमिति चेन्न। प्रतिफलितविषयाकार मनोवृत्त्युपहितचैतन्यं प्रमाणमिति रूपादिज्ञानस्य चेतनत्वसिद्धेः। तथा रूपादिज्ञानं मोदक के समान ही परस्पर भिन्न हैं। ये सब ज्ञान अविद्या से ही उत्पन्न हैं तथा अद्वैत तत्त्व के अनुसार गोबर, मोदक आदि में कोई भेद नही है यह कथन भी उचित नही । अलग अलग शब्दों के प्रयोग से तथा प्रत्यय से पदार्थों में भेद का अस्तित्व पहले विस्तार से स्पष्ट किया है । लौकिक दृष्टि से भी देखा जाय तो गाय के घास आदि खाने पर गोबर की उत्पत्ति होती है तथा जौ आदि गुड के माथ मिलाने पर मोदक बनता है -- इस तरह इन का भेद स्पष्ट ही है । रूप, रस आदि का ज्ञान करणवृत्तिरूप (साधनभूत) है अतः स्वसंवेद्य नही है यह आपत्ति भी ठीक नही । रूपज्ञान आदि चेतन हैं - जैसे कि वेदान्तियों ने भी माना है - प्रतिबिम्बित विषय के आकार की मनोवृत्ति से उपहित चैतन्य को प्रमाण कहते हैं; तथा जो चेतन है वह अवश्य ही स्वसंवेद्य होता है। रूपज्ञान आदि के बारे में संशय दूर करने के लिये किसी दूसरे की अपेक्षा नही होती इससे भी उनका चेतन तथा स्वसंवेद्य होना स्पष्ट होता है। स्वसंवेदन से रूपज्ञान, रसज्ञान आदि की भिन्नता स्पष्ट होती है। उसी प्रकार आत्माओं की भिन्नता भी स्पष्ट होती है ।
१ साध्यसाधन विकलो दृष्टान्तः परस्परं विभिन्नानि इति साध्यं विभिन्नसामग्रीजन्यत्वादिति साधनम् । २ ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम् । इति करणवृत्तिरूपम् । ३ प्रतिफलितः विषयाकारः यस्यां मनोवृत्ती सा प्रतिफलितविषयाकारा मनोवृत्तिः तया ।
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