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मायावादविचारः इति ब्रह्मसिद्धौ स्वयमेवाभिधानात् । किं च। स्वप्नादिभ्रान्तिविषयस्य प्रमातृवेद्यत्वाभावेन दृश्यत्वाभावात् साधनविकलो दृष्टान्तश्च स्यात् । एतेन प्रपञ्चो मिथ्या शेयत्वात् वेद्यत्वात् मेयत्वात् विषयत्वात् अगम्यत्वात् ज्ञानगोचरत्वात् स्वप्नप्रपञ्चवदित्यादिकं निरस्तमवबोद्धव्यम्। एतेषां हेतूनामपि दृश्यत्वाभिधानत्वेन तदोषेणैव दृष्टत्वात् ।
ननु प्रपञ्चो मिथ्या उत्पत्तिमत्त्वात् शुक्तिरजतादिवदिति चेन्न । हेतो गासिद्धत्वात् । कुतः पक्षीकृतेषु परमाण्वाकाशादिषूत्पत्तिमत्त्वहेतोरप्रवर्तनात् । अथ उत्पत्तिमन्तः परमाणवः स्पर्शादिमत्त्वात् पटादिवदिति परमाणूनाम् , आत्मनः आकाशः संभूतः इत्याकाशादीनां च प्रमाणादेवोत्पत्तिमत्वसिद्धेर्न भागासिद्धो हेतुरिति चेन्न। त्वदीयहेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात्। कथम् । यद् यत् कार्यद्रव्यं च विवादापनं तस्मात् स्वपरिमाणादल्पपरिमाणावयवारब्धम् इति परमाणूनामकार्यत्वग्राहकेणोपजीव्यानुमानेन पक्षस्य बाधितत्वात् । आत्मनः आकाशः संभूतः को दृश्य कहना भी उचित नही – वह भ्रान्ति है अतः प्रमाणज्ञान नही है। दृश्य होने से प्रपंच मिथ्या सिद्ध नही होता इसी प्रकार ज्ञेय, वेद्य, मेय, विषय, अवगम्य, ज्ञानगोचर आदि होने से भी मिथ्या सिद्ध नही होता -- ज्ञेय आदि शब्द दृश्य शब्द के ही रूपान्तर हैं।
सीप में प्रतीत चांदी के समान प्रपंच भी उत्पन्न होता है अतः मिथ्या है यह अनुमान भी दूषित है। एक तो प्रपंच में सम्मिलित परमाणु, आकाश आदि तत्त्व नित्य हैं - वे कभी उत्पन्न नही होते, अतः प्रपंच उत्पन्न होता है यह कथन ही ठीक नही। परमाणु स्पर्शादियुक्त हैं अतः वे उत्पत्तियुक्त हैं यह अनुमान ठीक नही । प्रत्येक कार्य का कारण उस से अल्प आकार का होता है, परमाणु से अल्प आकार की कोई वस्तु नही अतः परमाणु का कोई कारण नही - परमाणु किसी से उत्पन्न नही होता यह पहले स्पष्ट कर चुके हैं। अत: परमाणु नित्य हैं। 'आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ' आदि उपनिषद्वचन अप्रमाण हैं यह भी पहले स्पष्ट किया है। अतः
१ ग्रन्थजातेन। २ प्रमाणबाधिते पक्षे प्रवर्तमानो हेतुः कालात्ययापदिष्टः । ३ द्वयणुकं स्वल्पपरिमाणद्रव्यारब्धं कार्यद्रव्यत्वात् । ४ उत्पत्तिमन्तः इति ।
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