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भ्रान्तिविचारः
१३३ निषिध्यत इति चेत् तर्हि अन्यथाख्यातिरेव स्यानाख्यातिः। तस्मात् अख्यातिपक्षे बाधकोऽपि न जाघटयते।
तथा वितथज्ञानाभावे कस्य मिथ्याव्यपदेशः स्यात् । अथ अयथार्थ. व्यवहारस्यैव मिथ्याव्यपदेश इति चेत् तर्हि द्विचन्द्रादिप्रतिपत्ती व्यवहाराभावात् कस्य मिथ्याव्यपदेशः स्यात् । ननु तत्रापि शब्दप्रयोगलक्षणव्यवहारोऽस्ति तस्यैव मिथ्याव्यपदेश इति चेन्न। जातिबधिरमूकादीनां दोषदुष्टेन्द्रियत्वेन द्विचन्द्रप्रतिपत्तौ शब्दप्रयोगलक्षणव्यवहारस्याप्यसंमवेन कस्यापि मिथ्याव्यपदेशानुपपत्तेः । अत्र द्वौ चन्द्रौ न स्तः किंतु एक एवार्य चन्द्र इत्युत्तरकालीनबाधकप्रत्ययेन प्राक्तनज्ञानस्य मिथ्याव्यपदेशः क्रियत इति चेत् तर्हि अन्यथाख्यातिरेव त्वया उरीक्रियते। तस्मादख्यातिपक्षे वैतथ्यस्याप्यनुपपत्तिरेव । तथा च प्रभाकरपरिकल्पितस्कृतिप्रमोषो न वृद्धसंमतो युक्तिरहितत्वादिति स्थितम् । यह अंश — यह सीप है' इस ज्ञान में भी विद्यमान है। अतः यह निषेधरूप ज्ञान तभी सम्भव है जब ' यह कुछ ' तथा 'चांदी' ये दोनों एक ही वस्तु के बोधक हों। यह तथ्य भी अख्याति पक्ष के विरुद्ध है।
भ्रमपूर्ण ज्ञान का अस्तित्व न हो तो मिथ्याज्ञान शब्द का प्रयोग किसी ज्ञान के लिये क्यों होता है ? भ्रमजनक व्यवहार के (उदाहरणार्थचांदी को उठाने की इच्छा ) कारण ज्ञान को मिथ्या कहा जाता है यह उत्तर उचित नही। 'आकाश में दो चन्द्र हैं ' यह भ्रम किसी व्यवहार पर आधारित नही है फिर इसे मिथ्या ज्ञान क्यों कहा जाता है ? यहां (दो चन्द्र है) यह शब्द का प्रयोग ही भ्रमजनक व्यवहार है यह कथन सम्भव नही । बहरे-गंगे आदि जो शब्द का प्रयोग नही कर सकते उन को भी ऐसा भ्रमयुक्त ज्ञान होता है। अतः यह मिथ्या ज्ञान शब्दप्रयोग पर या व्यवहार पर आधारित नही है। भ्रम दूर होने पर , यह एक ही चन्द्र है' इस ज्ञान से पहले के 'दो चन्द्र हैं ' इस ज्ञान को मिथ्या ज्ञान कहते हैं यह उत्तर हो सकता है। किन्तु इस में मिथ्या ज्ञान के अस्तित्व को स्पष्टही स्वीकार किया गया है। अतः प्राभाकरों का यह स्मृतिप्रमोपवाद अयुक्त है।
१ मिथ्याज्ञानाङ्गीकार एव स्यात् । २ प्राभाकरेण ।
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