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भ्रान्तिविचारः
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ज्ञानव' दित्य सत्ख्यातिसमर्थनेन शुक्तौ रजतज्ञानस्य निरालम्बनत्व - सिद्धेः । तथा च सर्वप्रत्ययानां निरालम्बनत्वसिद्धौ बहिः प्रमेयस्याभावात् कथं विश्वतवप्रकाशायेति नमस्कारश्लोकस्याद्यविशेषणं जाघट्यत इति माध्यमिकाः प्रत्यवोचन् ।
तद्युक्तं विचारासहत्वात् । व्याप्तिबलमवलम्ब्य परस्यानिष्टापादनं तर्कः है । स च आत्माश्रय इतरेतराश्रयः चक्रकाश्रयः अनवस्था अतिप्रसंग इति पञ्चधा भिद्यते । तत्र मूलशैथिल्यं मिथोर विरोधः इष्टापादनं विपर्यये अपर्यवसानमिति तर्कदोषाश्चत्वारः । प्रमाणे असिद्धादिदोषवत् । तथा च घटोsस्तीति केन निश्चीयते ज्ञानमात्रेण घटज्ञानेन वा, प्रथमपक्षे अतिप्रसंगः, द्वितीयपक्षे इतरेतराश्रयप्रसंग इति वदता वादिना तकाभासावेवोपन्यस्तौ । विपर्यये अपर्यवसानमित्येतद् दोषदुष्टत्वात् । अथ प्रथमपक्षे तस्मादघटज्ञानेन घटोऽस्तीति निश्चीयते इति विपर्यये पर्यवसानं क्रियत इति है । जब विश्व में पदार्थ ही नहीं हैं ८ तब सब तत्त्वों के प्रकाशक : यह इस ग्रन्थ के मंगलाचरण का शब्द निरर्थक सिद्ध होता है ।
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माध्यमिकों का यह कथन हमें अयुक्त प्रतीत होता है। उन्हों ने तर्क से प्रतिवादी के मत का विरोध किया है । व्याप्ति के आधार से प्रतिवादी को अनिष्ट बात सिद्ध करना तर्क कहलाता है। आत्माश्रय, इतरेतराश्रय, चक्रक, अनवस्था तथा अतिप्रसंग ये तर्क के पांच प्रकार हैं । किन्तु तर्क के भी चार दोष होते हैं - मूल प्रतिपादन शिथिल होना, कथन में परस्पर विरोध होना, प्रतिवादी को इष्ट बात स्वीकार करना तथा उस के प्रतिकूल बात सिद्ध न करना । माध्यमिकों ने उपर्युक्त कथन में 'पट - ज्ञान से घट का ज्ञान होगा' यह अतिप्रसंग तथा ( घटज्ञान से घटका ज्ञान होगा' यह इतरेतराश्रय ऐसे दो तर्क प्रस्तुत किए है । ये दोनों तर्क दूषित हैं क्यों कि इन से प्रतिवादी के विरुद्ध तत्त्व सिद्ध नही होता ।
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पट - ज्ञान से घट है यह प्रतीत होगा ' यह कथन विरुद्ध तत्त्व को
१ यथा निर्विषाणं खरमस्तकमिति ज्ञानम् असत्त्वावेदकं तथा । २ अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणादृतः, प्रत्यक्षं न हि बाह्यवस्तुविषयं सौत्रान्तिकेणादृतम् । योगाचारमतानुसारिमतयः साकारबुद्धि परे मन्यन्ते खलु मध्यमा जडधियः । ३ परस्परम् । ४ विज्ञानाद्वैतवादिना । ५ पटज्ञानेनैव लकुटज्ञानेनैव इति पर्यवसानं नास्ति ।
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