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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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अदृश्यमात्रसमवायिभिरारब्ध इत्यभिप्रायः परमाणुभिरारब्ध इति वा । न तावदाद्यः पक्षः सिद्धसाध्यत्वेन हेतोर किंचित्करत्वात् । कथम् । तनुकरण संतानस्य समवायिकारणरूपत्वेनोपात्तशुक्रशोणितादीनामदृश्यत्वेन तनुकरण संतानस्य दृश्यसंतानशून्यैः समवायिभिरारब्धत्वाङ्गीकारात् । न द्वितीयः पक्षोऽपि । दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् । आरणेयाग्निसंताने दूद्व्यणुकादिभिरारब्धत्वसंभवेन परमाणुभिरारब्धत्वाभावात् । तत् कथम् । आरणेयाग्निर्न परमाणुभिरारब्धः अद्व्यणुकत्वात् अस्मदादि बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वात् पटादिवदिति । घटादिसंतानेन व्यभिचाराच्च । तेषां दृश्यसंतानैर्मृत् पिण्डशिवकादिसमवायिभिरारब्धत्वात् । अथ तेषामपि पक्षीकरणान व्यभिचार इति चेत् तर्हि प्रत्यक्षेण पक्षे साध्याभावस्य निश्चितत्वात् कालात्ययापदिष्टो हेतुः स्यात् । तस्माद् वीतानि नराश्वादिशरीराणि पूर्वनराश्वादिशरीरजानि गर्भजसंतानशरीरत्वात् संप्रतिपन्न
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पृथ्वी अनित्य ही है यह कहना योग्य नही । इस अनुमान का उदाहरण भी दोषयुक्त है क्यों कि दीपक के प्रारम्भ में परमाणु स्वतन्त्र नही होते ( - बत्ती, तेल, अग्नि के स्कन्ध रूप में ही होते हैं ) ।
जैसे अरण्य में अग्नि किसी दृश्य कारण के विना ही भडकती है विना ही (प्रलया
वैसे इस विश्व की परम्परा भी किसी दृश्य कारण के स्थिति से ) शुरू हुई है यह कहना भी ठीक नही । इस में एक दोष तो यह है कि कारण दृश्य न हो तो अदृश्य भी हो सकता है, जैसे कि शरीर का उत्पत्तिकारण वीर्य तथा रज अदृश्य स्थिति में होता है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नही कि शरीर ( प्रलयस्थिति से - ) कारणरहित उत्पन्न होता है । दूसरे, यहां उदाहरण भी दोषयुक्त है क्यों कि अरण्य में अग्नि परमाणुओं से आरम्भ नही होता । न्यायदर्शन के ही मतानुसार परमाणुओं से पहले द्वणुक बनते हैं और वे बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य नही होते । अग्नि बाह्य इन्द्रियों से ग्राह्य है अतः वह परमाणुओं से आरम्भ नही हुआ है। तीसरा दोष यह भी है कि जगत में घट आदि बहुत से पदार्थों का कारण दृश्य होता है । अतः विश्व के पदार्थों का दृश्य कारण नही होता यह कहना प्रत्यक्ष से ही बाधित है । इस
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१ द्वयणुकञ्यणुकादिभिः आरब्धत्वात् । २ घटादौ ।
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