________________
- ३७ ]
प्रामाण्यविचारः
१०७
तस्मादभ्यासदशायां विज्ञानस्वरूपं येन निश्चीयते तेनैव तत्प्रामाण्यं निश्चीयते यथा स्वकीयकर तले रेखात्रयपश्चाङ्गुलशाने । अनभ्यासदशायां तु विज्ञानं येन ज्ञायते ततोऽन्येन प्रमाणेन तत्प्रामाण्यं निश्चीयते । यथा जलमरीचिकासाधारण प्रदेश जलज्ञानोत्पत्तौ इदं सत्यं जलं घट चेटिकापेटत्वात् दर्दुराराववव त् सरोजगन्धवत्वात् परीतशास्वलादिमत्वाच परिदृष्टजलवत् । यथा च रज्जुसर्पसाधारणप्रदेशे सर्पज्ञानोत्पत्तौ अयं सर्प एव आतान वितान रेखावृतपाण्डुराकारत्वात् हीयमान दीर्घ पुच्छ कवात् फूत्कारस्वात् प्रसरत्स्फटादिमत्वाच्च परिसर्पवत् इति स्वतः सिद्धप्रामाण्यादनुमानात् । अथवा स्नानपानावगाहनादिविनोदाद्यर्थत्रियाज्ञानात रवत. सिद्धप्रामाण्यात् प्राक्तनज्ञानस्य प्रामाण्यं वियतति उङ्गीकर्तव्यम् । तथा च प्रयोगः । जलमरीचिकासाधारणप्रदेशे जलज्ञानप्रामाण्यं विज्ञानज्ञापकेन न ज्ञायते विज्ञानज्ञप्तिकालेऽज्ञातत्वात् । कुतः विज्ञानोत्पत्तिकाले स्वसंवेदनेनाज्ञातत्वात् । अनन्तरसमये अर्थप्राकटयेन ज्ञातत्वाच्च । व्यतिरेके स्वकर तलज्ञानप्रामाण्यवत् । ननु अनभ्यस्तदशायां
तात्पर्य यह है कि जो सुपरिचित वस्तुएं हैं- जैसे कि हाथ की अंगुलियां या सरल रेखाएं - उन के ज्ञान के साथ ही उस ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः ज्ञात होता है । किन्तु अपरिचित स्थिति में वस्तु के ज्ञान से प्रामाण्य के ज्ञान का साधन भिन्न होता है - यह ज्ञान परतः होता है | उदाहरणार्थ - रेगिस्तान में जल का ज्ञान होने पर यह ज्ञान प्रमाण है - मृगजल नही है - यह जानने के लिये पानी भरनेवाली दासियां मेंढकों का आवाज, कमलों का सुगन्ध, समीप में होना आदि साधन सहायक होते है । तथा यह रस्सी है या सांप है ऐसा सन्दिग्ध ज्ञान होने पर यह सांप ही है ऐसे प्रामाण्य के ज्ञान के लिये सर्प का लम्बा उजला आकार, छोटी होते जानेवाली पूंछ, फूत्कार, फैली हुई फणा आदि सहायक साधन होते हैं । अथवा जल में स्नान आदि क्रियाओं द्वारा जल के ज्ञानका प्रामाण्य निश्चित होता है । तापर्य यह है कि जल का ज्ञान तथा प्रामाण्य का ज्ञान एक साथ नही
१ जला दिज्ञानम् । २ आद्यजलादिज्ञानस्य । ३ अतः परतः सिद्धा । ४ यव विज्ञानज्ञापकेन ज्ञायते तच्च विज्ञानइतिकाले ज्ञातं भवति यथा स्वकरतलज्ञानप्रामाण्यम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org