________________
-३०]
वेदप्रामाण्यनिषेधः
~
~
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतःपात् । शं बाहुभ्यां धमति संपतत्रै द्यावाभूमी जनयन् देव एकः॥
(श्वेताश्वतरोपनिषत् ३-३) इत्यादि सृष्टिसंहारक्रमम् ईश्वरादिदेवतासद्भावं प्रपञ्चस्य सत्यत्वमात्मनानात्वादिकं च समर्थयन्ते । सेश्वरसांख्यास्तु,
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्यां शूदो अजायत । चन्द्रमा मनसो जातः चक्षुषः सूर्योऽजायत । मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत ।
(ऋग्वेद १०-९०-११, १२) इत्यादि सृष्टिसंहारक्रमम् ईश्वरादिदेवतासद्भावं वर्णयन्ति। निरीश्वरसांख्यास्तु,
प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥
(सांख्यका रिका २२) इस के मुख, बाहु तथा पैर सर्वत्र हैं तथा यह अपने बाहुओं से कल्याण का निर्माण करता है।
सेश्वरसांख्य दर्शन के अनुयायी भी ईश्वर व देवताओं को तथा सृष्टि और संहार को मानते हैं तथा आधार के रूप में ये वेदवाक्य प्रस्तुत करते हैं - 'उस ( जगद्व्यापी पुरुष ) का मुख ही ब्राह्मण थे, क्षत्रिय उस के बाहु थे, वैश्य उस की जंघाएं थे। तथा शूद्र उस के पैरों से उत्पन्न हुए थे। उस के मन से चन्द्रमा, आंखों से सूर्य, मुख से इन्द्र तथा अग्नि एवं श्वांस से वायु उत्पन्न हुआ था।
निरीश्वर सांख्य दार्शनिक ईश्वरादि देवताओं को नहीं मानते, आत्मा को भोक्ता मानते है किन्तु कर्ता नही मानते, आत्मा को ज्ञान से रहित, सर्वदा शुद्ध मानते हैं। इन के मत में जगत के सृष्टि तथा संहार का क्रम इस प्रकार है - 'प्रकृति से महत्, उस से अहंकार, उस से सोलह तत्वों का समुदाय तथा उन सोलह में से पांच (तन्मात्रों) से पांच भूत आविर्भूत होते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org