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-३६] वेदप्रामाण्यनिषेधः
१०१ पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः। वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥
(याज्ञवल्क्यस्मृति १-१-३) इति याज्ञवल्क्यप्रतिपादिता स्मृतिरुन्मत्तवचनवत् तिष्ठति, न तु प्रामाणिकवचनमिवास्ते। [३६. वेदानां स्वतःप्रामाण्यनिषेधः । ]
___ अथ मतं मिथ्याशानदुष्टाभिप्रायवद्वक्तुः सकाशाद् वचनस्य प्रमितिजनकत्वाभावेनाप्रामाण्यं भवति । 'अप्रामाण्यं परतो दोषवशात्' इति वचनात् । वेदे तु मिथ्याशानदुष्टाभिप्रायवद्वक्तुरभावेन दोषाभावात् प्रामाण्यं स्वत एवावतिष्ठते । तथा चोक्तं
शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितः। तदभावः क्वचित् तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् । यद् वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः॥
(मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ. ६५) इति तदयुक्तम् । वेदे वक्तृसद्भावस्य प्रागेव प्रमाणेन प्रतिपादितत्वात् । तस्य च वक्तुः किंचिज्ज्ञत्वेन मिथ्याशानदुष्टाभिप्रायसंभवात् कथं वेदस्य स्वतःप्रामाण्यमवतिष्ठते। वक्तुः पुरुषस्य ऋज्वभिप्रायतत्त्वज्ञानादिगुणै
३६. वेदोंके स्वतः प्रामाण्य का निषेध–यहां मीमांसकों का कथन है कि मिथ्या ज्ञान से या दूषित अभिप्राय से किसी वक्ता द्वारा कहा हुआ वचन अप्रमाण होता है किन्तु वेद ऐसे किसी दूषित बक्ता द्वारा नही कहे गये हैं अतः वेद स्वयं प्रमाण हैं - जैसे कि कहा है - 'शब्द में दोष की उत्पत्ति वक्ता के कारण होती है तथा वक्ता गुणवान हो तो शब्द निर्दोष होते हैं। गुणों के कारण दोष दूर हो जाने पर शब्द में वे दोष नही आ सकते । अथवा वक्ता ही न हो तो कोई दोष अपने आप उत्पन्न नही होता।' किन्तु इस के उत्तर में हमने पहले ही स्पष्ट किया है कि वेद विना वक्ता के ( अपौरुषेय ) नही हो सकते तथा वेद के वक्ता सर्वज्ञ भी नही हो सकते अतः उन्हें निर्दोष कैसे कहा जा सकता है ? दूसरी बात यह है
१ निषेधितानां दोषाणाम् ।
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