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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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इत्यादि सृष्टिसंहारक्रममीश्वरादिदेवताभावमात्मनामकर्तृत्वभोक्तृत्वशानादिरहितत्वसदाशुद्धत्वादिकं वर्णयन्तीति परस्परव्याहतोक्तित्वाद् वेदानुसारिणां यौक्तिकत्वाभावो निश्चीयते। तथा च यौक्तिकबहुजनपरिगृहीतत्वादित्यसिद्धो हेत्वाभासः। आयुर्वेदवदित्यत्रापि आयुर्वेदस्य प्रामाण्ये तदुक्तौषधाचरणे नियमेन व्याधिपरिहारः स्यात् , न चैवं, तस्मादायुर्वेदस्य प्रामाण्याभावात् साध्यविकलो दृष्टान्तः स्यात् । [३१. वेदानां सदोषत्वम् ।]
ननु
चोदना जनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवर्जितैः। कारणैर्जन्यमानत्वात् लिङ्गाप्तोक्त्यक्षबुद्धिवत् ॥
(मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ. १०२) इत्येतदनुमानाच्चोदनानां प्रामाण्यसिद्धिरिति चेन्न । दोषवर्जितैः कारणैर्जन्यमानत्वादिति हेतोरसिद्धत्वात् । कुत इति चेत् चोदनानां दोषवर्जितत्वासंभवात् । कथमिति चेत् मीमांसकैश्चोदनानां सर्वज्ञप्रणीतत्वानभ्यु
इस प्रकार वैदिक दर्शनों में परस्पर विरोध इतना प्रबल है कि उन सब को युक्तिवादी कहना सम्भव नही। इस लिए युक्तिवादी बहुमत वेद को प्रमाण मानता है यह कहना भी व्यर्थ होता है। वेदों के बहुसम्मत होने में आयुर्वेद का जो उदाहरण दिया है वह भी निरुपयोगी है क्यों कि आयुर्वेद कोई पूर्ण प्रमाण नही है, यदि वह पूर्ण प्रमाण होता तो उस से नियमपूर्वक सब व्याधियां दूर होती किन्तु ऐसा होता नही है । अतः वेदों की प्रमाणता में आयुर्वेद का उदाहरण व्यर्थ है।
३१. वेद सदोष है-अनुमान, आप्त पुरुष का वचन तथा प्रत्यक्ष ये निर्दोष कारणों से उत्पन्न होने पर प्रमाण होते हैं उसी प्रकार वेदवाक्यों की प्रेरणा भी प्रमाण है क्यों कि वह निर्दोष कारणों से उत्पन्न होती है - यह मीमांसकों का कथन है। किन्तु यह उचित नही। वेद सर्वज्ञप्रणीत नही हैं अतः वे दोषरहित नही हो सकते और इसी लिए प्रमाण भी नही हो सकते । इस पर आक्षेप है कि मीमांसक वेदों को सर्वज्ञप्रणीत नही मानते किन्तु नैयायिक वेदों को सर्वज्ञ ईश्वर के द्वारा
१ वेदवाक्येन प्रेरणा । २ वेदवाक्यैः
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