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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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भ्रान्तत्वं तत् प्रत्यभिज्ञानाभ्रान्तत्वे ततः शब्दस्य नित्यत्वसिद्धिरिति । अथ अन्येनानुमानेन चेत् तत् कीदृशम्। नित्यः शब्दः अमूर्तत्वात् आकाशवदिति चेन्न । हेतोः क्रियाभिर्व्यभिचारात् । अथ तत् परिहारार्थम् अमूर्तद्रव्यत्वादित्युच्यते तथापि प्रतिवाद्यसिद्धो हेत्वाभासः । कथम् । नैयायिकादीनां मते शब्दस्याकाशगुणत्वेन द्रव्यत्वासिद्धेः । जैनैस्तु मूर्तद्रव्यत्वेनाङ्गीकाराच्च । अथ तैरप्रमाणमूलत्वेनाङ्गीकृतमिति चेन्न । तत्र प्रमाणसद्भावात् । शब्दो मूर्तः स्पर्शवत्त्वात् वातादिवदिति । अथ शब्दस्य स्पर्शवत्त्वमसिद्धमिति चेन्न । शब्दः स्पर्शवान् संयोगविभागान्यत्वे सति कांस्यपात्रादौ नादोत्पादकत्वात् कोणादिवदिति मूर्तद्रव्यापनोदित्वात् ' जलादिवदिति शब्दस्य स्पर्शवत्यसिद्धेः । न चायं हेतुरसिद्धः निःसाणादिमहाशब्देन बहुपदात्यास्फोटनेन च प्रासादप्राकारादीनां विनिपातदर्शनात्।
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तब शब्द नित्य है अतः उस का प्रत्यभिज्ञान भ्रमरहित है' यह कहना कैसे संभव है ? यह तो परस्पराश्रय होगा । अतः शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिए किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता है । शब्द आकाश के समान अमूर्त है अतः नित्य है यह अनुमान उचित नही - क्रियाएं अमूर्त होती हैं किन्तु नित्य नहीं होतीं। इस दोष को दूर करने के लिए इसी अनुमान का रूपान्तर प्रयुक्त करते हैं - शब्द अमूर्त द्रव्य है अतः नित्य है । किन्तु यह भी सदोष है – नैयायिकों के मत से शब्द गुण है, द्रव्य नही तथा जैनों के मत से शब्द द्रव्य तो है किन्तु मूर्त हैअतः शब्द अमूर्त द्रव्य है यह कथन विवादास्पद है । शब्द के मूर्त द्रव्य होने का प्रमाण यह है कि वह स्पर्शयुक्त है । कांसे के पात्र पर शब्द का आघात होने पर वैसे ही नाद उत्पन्न होता है जैसे किसी कोण ( वीणा बजाने का दण्ड ) के आघात से उत्पन्न होता है । शब्द से पानी जैसे मूर्त द्रव्य में हलनचलन उत्पन्न होता है । निसानादि वाद्यों के प्रचण्ड नाद से तथा पैदल सेना के पदाघात के नाद से प्रासाद गिरते हुए देखे गए हैं । इन सब बातों से शब्द का स्पर्शयुक्त तथा मूर्त होना स्पष्ट है ।
१ कोणो वीणादिवादनम् । २ चलनक्रियाकारकत्वात् ।
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