________________
-२६ ]
ईश्वरनिरास:
शरीरवत् इति शरीरसंतान स्याप्यनादित्वसिद्धिः । ततश्च लोकस्याकृतिमत्वमनाद्यनन्तत्व' प्रतिपादकागमस्य प्रामाण्यसिद्धिश्च ।
२६. ईश्वरनिरासोपसंहारः । ]
एतेनैव ब्रह्मणोऽपि विश्वकर्तृत्वाभावं प्रत्यपीपदाम' । उक्तसाधनदूषणयोस्तत्कर्तुत्वेऽपि समानत्वात् । तथा ब्रह्मा सर्वशो न भवति संसारित्वात् प्रसिद्धसंसारिवत् । ब्रह्मणः संसारित्वमसिद्धमिति चेन्न । ब्रह्मा संसारी जातिजरामरणवस्वात् पूर्वोत्तरशरीरत्यागोपादानवत्त्वाच्च प्रसिद्ध
सावित् । तथा विष्णुरपि सर्वज्ञो न भवति मत्स्यत्वेनोत्पन्न त्वात् प्रसिद्धमत्स्यवत् कर्मत्वेनोत्पन्नत्वात् प्रसिद्ध कूर्मवत् वराइत्वेनोत्पन्नत्वात् प्रसिद्धवराहवत् गोपालत्वात् प्रसिद्ध गोपालवत् संसारित्वात् प्रसिद्धसंसारिवत् । अथ विष्णोः संसारित्वं नास्तीति चेन्न । विष्णुः संसारी उत्पत्तिविनाशवत्त्वात् पूर्वशरीरं विहायोत्तरशरीरग्राहित्वात् प्रसिद्धसंसावित् । ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा न सर्वज्ञाः कामक्रोधलोभमानमात्सर्यो - येतत्वात् संप्रतिपन्नपुरुषवत् ।
"
६७
विवरण से स्पष्ट होता है कि मनुष्य तथा पशुओं के शरीर अपने मातापिता के शरीरों से उत्पन्न होते हैं तथा यह शरीरों की परम्परा अनादि है । इस लिए जगत को अनादि-अनन्त मानना ही उचित है । ऐसा जिस शास्त्र का मत है वही प्रमाण हो सकता है ।
I
२६. ईश्वर निरास का उपसंहार -- ईश्वर के जगत्-कर्ता होने का निरसन अब तक विस्तार से किया । इसी प्रकार ब्रह्मदेव तथा विष्णु के जगत् कर्ता या सर्वज्ञ होने का निरसन होता है । ये देव संसारी हैं - एक शरीर छोडकर दूसरा धारण करते हैं तथा जन्म, वृद्धत्व, एवं मृत्यु से युक्त हैं अतः वे सर्वज्ञ नही हो सकते । विष्णुने तो मछली, कछुआ, सुअर, ग्वाल आदि के शरीरों में जन्म लिया है । अतः संसारी होने से वह सर्वज्ञ नही हो सकता । दूसरे, ये सब देव काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, मत्सर आदि दोषों से युक्त हैं यह भी उन के सर्वज्ञ होने में बाधक है । --
१ भुवनस्य अनाद्यनन्तत्वम् । २ वयं जैनाः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org