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विश्वतत्त्वप्रकाशः
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दिनः २, अमिद्धत्वात् । कुतः वेदे प्रतिवादिभिरष्टकादिकर्तुः स्मरणात् । अथ परेषामष्टकाद्यनेक कर्तृविप्रतिपत्या वेदे कर्तुरभाव एवेति चेन्न । कर्तृमात्रे विप्रतिपत्यभावात् । तन्नामविशेषे विप्रतिपत्तिः । ततो न प्रतिवादिनो अस्मर्यमाणकर्तृकत्वं हेतुः । नापि सर्वस्य । अमीमांसकैः सर्वैस्तत्र कर्तुः स्मरणात् ।
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अथ तत्स्मरणस्यानुभव जनित संस्कारजत्वात् वेदे कर्ता केन प्रमाणेनानुभूतो यतः स्मर्यत इति चेत् वृद्धोपदेशात् वाक्यत्वादनुमानाच्चेति ब्रूमः । किं च त्रिकालत्रिलोकोदरवर्तिसर्वात्म चेतोवृत्ति विशेषविज्ञान रहितो मीमांसकः कथं वेदे सर्वेषां कर्तृस्मरणाभावं निश्चिनुयात् । तथा जानतः स्वस्यैव सर्वज्ञत्वेनागमकर्तृत्वप्रसंगात् । अथ * वेदस्याध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥ ( मीमांसाश्लोकवार्तिक पृ. ९४९ )
कथन भी ठीक नही - बौद्धों को स्मरण है कि वेद के कर्ता अष्टक आदि ऋषि हैं । इस पर आक्षेप करते हैं कि प्रतिपक्षियों में वेदके कर्ता के बारे में एकमत नही है अतः उन के कथन विश्वसनीय नहीं हैं । किन्तु प्रतिपक्षियों में वेदके कर्ता के नाम के बारेमें मतभेद होने पर भी वेद का कोई कर्ता था इस विषय में एकमत है । अतः वेद के कर्ता का स्मरण ही नही है यह कहना उचित नही ।
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मीमांसकों का एक आक्षेप यह है कि जिसे एक बार किसी चीज का अनुभव हुआ है उसे ही उस का स्मरण हो सकता है । प्रतिबादी को वेद-कर्ता का अनुभव नही हुआ है अतः स्मरण भी नही हो सकता । उत्तर यह है कि प्रत्यक्ष अनुभव न होने पर भी वृद्धों के उपदेश से वेद-कर्ता का स्मरण हो सकता है । तथा वाक्य पुरुष्कृत होते हैं इस अनुमान से भी वेद के कर्ता का अनुमान हो सकता है । दूसरे, सभी प्रदेशों में सभी सपयों में सभी पुरुषों को वेद-कर्ता की स्मृति नही है इसका ज्ञान मीमांसकों को कैसे हुआ ? यदि ऐसा ज्ञान हो सकता है तब तो मीमांसक सर्वज्ञ ही सिद्ध होंगे ।
१ वेदकर्तुः स्मरणस्य । २ वेदकर्तृस्मरणं तु अनुभवसंस्कारजं भवति तर्हि वेदकर्तुः स्मरणस्य अनुभवः केन प्रमाणेन । ३ वयं जैनः । ४ मीमांसकः वेदस्यापौरुषेयत्व स्थापनार्थं श्लोकं प्राह ।
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