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विश्वतत्त्वप्रकाशः
अतीतानागतौ कालो वेदकारविवर्जितौ । कालशब्दाभिधेयत्वादिदानींतन कालवत् ॥
( तत्त्वसंग्रह पृ. ६४३ ) इति वेदस्या पौरुषेयत्वसिद्धिरिति चेन्न । बौधायनापस्तम्बाश्वलायनयाज्ञवल्क्यादिप्रवर्तमान का लै हैतोर्व्यभिचारात् । तेषां कालशब्दाभिधेयत्वसद्भावेऽपि वेदकारविवर्जितत्वाभावात् । अथ तत्कालानामपि वेदकारविवर्जितत्वं प्रसाध्यत इति चेन्न । कल्पसूत्रकर्तुर्बोधायनस्य आपस्तम्बसूत्रकर्तुरापस्तम्बस्य आश्वलायन शाखाकर्तुराश्वलायनस्य काण्वशाखादिकर्तुयज्ञवल्क्यादेस्तत्काले सद्भावेन पक्षे साध्याभावो निश्चित एव स्यात् । अथ तेषां तत्कर्तृत्व केन प्रमाणेन ज्ञायत इति चेन्न । व्यासादीनां भारतादिकर्तृत्वं येन प्रमाणेन ज्ञायते तेनैवेति संतोष्टव्यम् । अथ भारतादिग्रन्थावसाने ग्रन्थकारः स्वकीयनाममुद्रां व्यधादिति चेत् तदत्राप्यस्ति । 'नारायणं प्रविशतीत्याह भगवान् बौधायनः' इत्यादीनां कल्पसूत्रादिषु
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यह काल वेदकर्ता से रहित है उसी प्रकार सब काल वेदकर्ता से रहित होते हैं अतः अतीत समय और आनेवाले समय में भी वेद के कर्ता नही हो सकते यह अनुमान प्रस्तुत किया गया है । किन्तु यह भी पूर्वोक्त दोष से दूषित है । विविध वैदिक ग्रन्थों के कर्ता बौधायन, आपस्तम्ब, आश्वलायन, याज्ञवल्क्य आदि जिस अतीत समय में थे उस समय को वेदकर्ता से रहित कैसे कहा जा सकता है ? जैसे महाभारत आदि ग्रन्थों के रचयिता व्यास आदि ऋषि थे उसी प्रकार विविध वैदिक ग्रन्थों के रचयिता आपस्तम्ब आदि ऋषि थे अतः इन दोनों में फर्क करना ठीक नही है । भारतादि ग्रन्थों के अन्त में ग्रन्थकार के नाम पाये जाते हैं वैसे वैदिक ग्रन्थों के अन्त में नही पाये जाते अतः उन ग्रन्थों का कोई कर्ता नही यह कहना भी उचित नही । एक तो कई वैदिक ग्रन्थों में कर्ता का नाम पाया जाता है जैसे कि बौधायन कल्पसूत्र में ' वह नारायण में प्रवेश करता है ऐसा भगवान् बौधायन ने कहा है ' यह उल्लेख है । दूसरे सिर्फ नाम न मिलने से कोई ग्रन्थ कर्तासे
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१ आपस्तम्बादि । २ वेदकारविवर्जितौ इति साध्यम् । ३ कल्पसूत्रादीनां आपस्तम्बादिऋषिकर्तृत्वम् ।
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