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वेदप्रामाण्यनिषेधः इति वेदाध्ययनस्यानादित्वसिद्धिरिति चेन्न । आपस्तम्बसूत्राध्ययनेन बौधायनकल्पसूत्राध्ययनेन काण्वशाखाध्ययनादिना हेतोय॑भिचारात् । तेषां वेदाध्ययनवाच्यत्वसद्भावेऽपि अनादितो गुर्वध्ययनपूर्वकत्वाभावात् । किं च इदानीन्तनप्रवर्तनां दृष्ट्वा कालान्तरेऽपि तथा प्रवर्तनां प्रसाधयतो मीमांसकस्य पिटकत्रयादीनामप्यनादित्वेन अपौरुषेयत्वात् प्रामाण्यं प्रसज्यते। तथा हि।
पिटकाध्ययनं सर्व गुर्वध्ययनपूर्वकम्।
पिटकाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥(स्याद्वादसि द्धि १०-३०) इति । ततश्च तदुक्तानुष्ठानेऽपि मीमांसकाः प्रवर्तेरन्नविशेषात् । तस्माद् वेदपिटकयोः पौरुषेयत्वापौरुषेयत्वाविशेषेऽपि मीमांसकाः वेदोक्तानुष्ठाने प्रवर्तन्ते इति पक्षपात एवावशिष्यते । ननु
जैसे इस समय वेद का अध्ययन गुरु से किया जाता है वैसे सर्वदा होता है - वेदाध्ययन अविच्छिन्न गुरुपरम्परा से चलता है ' अतः वह अनादि है - किसी व्यक्ति द्वारा शुरू किया हुआ नही है यह अनुमान मीमांसक प्रस्तुत करते हैं। किन्तु यह कथन सदोष है। आपस्तम्ब सूत्र, बौधायन कल्पसूत्र, काण्व शाखा इन नामों से ही स्पष्ट है कि आपस्तम्ब, बौधायन, कण्व आदि आचार्यों ने वेदाध्ययन की उस उस शाखा का प्रारम्भ किया है । अतः वेदाध्ययन की परम्परा अनादि नही है। दूसरे, इस समय वेद का ही अध्ययन गुरुपरम्परा से चलता है ऐसा नही - पिटकत्रय का अध्ययन भी गुरुपरम्परा से ही चलता है। फिर मीमांसक पिटकत्रय को प्रमाणभत मानकर क्यों नही चलते ? यदि बौद्ध पिटकत्रय को पुरुषकृत मानते हैं अतः वे अप्रमाण हैं ऐसा कहें तो बौद्धों के ही कथनानुसार वेद को भी पुरुषकृत अतः अप्रमाण मानना होगा । अतः वेद और पिटकत्रय के प्रमाण भत होने में अन्तर करना पक्षपात का ही घोतक होगा - युक्तिवाद का नही।
१ यथा इदानींतनकाले वेदस्य कर्ता नास्ति तथा कालान्तरेऽपि । २ पौरुषेयत्वं चेत् तर्हि वेदेऽपि पौरुषेयत्वं पिटकत्रयेऽपि पौरुषेयत्वम् । चेत् वेदे अपौरुषेयत्वं तर्हि पिटके अपौरुषेयत्वमिति समानत्वात् ।
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