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प्रस्तावना
उद्धत किया है। पत्रपरीक्षा में यही प्रसंग कुछ विस्तारसे दिया है (पृ.३)। बौद्ध साहित्य में धर्मकार्तिकृत वादन्याय प्रसिद्ध है उसी विषय का जैनदर्शन के अनुकूल स्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया होगा ऐसा उपर्युक्त उद्धरणों से प्रतीत होता है । ग्रन्थ उपलब्ध नही है।
गंग राजा पृथ्वीकोंगणि के शक ६९८ (= सन ७७६) के एक दानपत्र में यापनीय संघ के आचार्य चंद्रनन्दि व उन के शिष्य कुमारनन्दि का उल्लेख है । ऐसी स्थिति में ८वीं सदी का उत्तरार्ध यह उन का समय निश्चित होगा । इसी समय के लगभग एक और कुमारनन्दि का उल्लेख भी प्राप्त होता है- ये कोण्डकुन्देय अन्वय के सिमलगेगूरु गण के आचार्य थे तथा इन के प्राशष्य वर्धमानगुरु को राष्ट्रकूट राजा कम्भदेव ने सन ८०८ में कुछ दान दिया था । इन दोनों में वादन्याय के कर्ता कौनसे हैं यह विषय विचारणीय है।
हेतुबिन्दुटीकालोक नामक बौद्ध ग्रन्थ में स्याद्वादकेशरी के वादन्याय ग्रन्थ का तथा उस की कुलभूषणकृत टीका का उल्लेख है। यहां स्याद्वादकेशरी यह किसी विद्वान की उपाधि प्रतीत होती है। यदि वादन्याय नाम का कोई दूसरा ग्रन्थ न हो तो यह उपाधि कुमारनन्दि की भी मानी जा सकती है।
पंचास्तिकायतात्पर्यटीका के प्रारम्भ में जयसेन ने कुन्दकुन्द के गुरु के रूप में कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव का उल्लेख किया है, किन्तु इस का प्रस्तुत लेखक से कोई सम्बन्ध प्रतीत नही होता।
२७. शाकटायन--यापनीय संघ के आचार्य पाल्यकीर्ति का दूसरा नाम शाकटायन था। इन्हों ने स्त्रीमुक्ति प्रकरण तथा केलिभुक्ति प्रकरण
१) तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकैः अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते । प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः ॥ २) कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदि. तत्वात् प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्ज्ञैः तथोदाहरणादिकम् ।। इत्यादि ३) जैन साहित्य और इतिहास पृ. ७९. ४) जैन शिलालेख संग्रह भा. ४ ( मुद्रणाधीन )। ५) तथा चावादीत् वादन्याये याद्वादकेशरो अखिलस्य वस्तुनः अनैकान्तिकत्वं सत्वात् अन्यथार्थक्रिया कुतः इति । एतच्च व्याचक्षागेन कुलभूषणेन टीकाकृता एवं व्याख्यातमुपपादितं च । (पृ. ३७३)
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