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विश्वतत्वाकाशः
[२२तथा च सर्वशत्वं सर्वकर्तृत्वं मुक्तत्वं च नोपपतीपद्यते तस्य । तथा हि । वीतः पुरुषः सर्वशो न भवति संसारित्वात् प्रसिद्धसंसारिवत् । अथेश्वरस्य संसारित्वमसिद्धमिति चेन्न। विवादाध्यासितः संसारी पूर्वशरीरं विहायोत्तरशरीरवाहित्वात् प्रसिद्धसंसारिवत्। वीतः पुरुषः जगत्कर्ता न भवति संसारित्वात् पूर्वोत्तरशरीरत्यागस्वीकारवत्त्वाच संमतसंसारिवत् । अत एव मुक्तत्वमपि नोपपनीपद्यते तस्य। एवं चासौ' वन्द्यो न भवति सदा संसारित्वात् अभव्यवत् । अथ विश्वकार्यकत्वेन अस्मददृष्टादीनां कर्तृत्वाद वन्द्योऽसाविति चेन। वीतो न वन्द्यः विश्वकार्यनिमित्तकारणत्वात् कालवादात बाधकसद्भावात् ।
किं च। तच्छरीरस्य प्रादेशिकत्वे सकलदेशेषूत्पद्यमानकार्याणि तत्र तत्र गत्वा करोति एकत्र स्थित्वा वा । न तावदाद्यः पक्षः भिन्नदेशके निर्माण के लिये उस से भी पूर्ववर्ती शरीर को जरूरत होगी-इस प्रकार शरीरों की परम्परा का कहाँ अन्त नहीं होगा। अतः सशरीर अवस्था में भी ईश्वर का जगत्-निर्माता होना योग्य सिद्ध नही होता। . दूसरी बात यह है कि न्यावदर्शन में मान्य ईश्वर संसारी है अतः वह सर्वज्ञ, जगत्कर्ता या मुक्त नही हो सकता । संसारी वह होता है जो एक शरीर छोडकर दूसरा शरीर धारण करता है। ईश्वर भी एक शरीर छोडकर दूसरा धारण करता है अतः वह संग है, तथा संसारी जीव सर्वज्ञ, सर्वकर्ता या मुक्त नहीं होते। अतः इश्वर का भी सर्वज्ञ, सर्वकर्ता या मुक्त होना युक्त नही है । इसीलिए ऐसा ईश्वर वन्दनीय भी नही है । हमारे अदृष्ट ( पुण्य-पार ) का कर्ता होने से ईश्वर वन्दनीय है यह कथन भी युक्त नही। विश्व के सभी कार्यों में काल भी निमित्तकारण होता है किन्तु उतने से काल वन्दनीय नही होता । उसी प्रकार पुण्यपाप आदि में निमित्तकारण होने से ईश्वर भी वन्दनीय नही है।
ईश्वर का शरीर अव्यापक है यह मानने पर एक दोष और उत्पन्न होता है। प्रश्न यह है कि ऐसी स्थिति में ईश्वर एक जगह बैठकर सर्वत्र कार्य करता है या जहां कार्य करना हो बहां जा कर करता है। यदि
१ ईश्वरः । २ दूषणान्तरम् । ३ एकदेशे स्थितत्वेन ।
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