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ईश्वरनिरासः
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कार्याणां युगपदुत्पत्त्यभावप्रसंगात् । अस्मत् प्रत्यक्षकार्येषु तथाविधकर्तुरभावस्य प्रत्यक्षेणैव निश्चितत्वात् हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं च। अथ द्वितीयः पक्षः कक्षीक्रियते' तथापि सकलदेशेषूत्पद्यमानकार्याणां पुरुषकृतत्वं दुर्लभं स्यात्। तथा हि। प्रयत्नात् कोष्ठवायुप्रचारः कोष्ठवायो करादीनां क्रिया ततश्च कार्यनिष्पत्तिरिति तच्छरीरसमीपस्थानां कर. चरणादिक्रिया यातानामेवर सक कत्वं नान्येषामिति स्थितम्। अथ यथैव हि राजा उपरितनभूमिकायां स्थित्वा भृत्यान् तत्र तत्र प्रतिपाद्य स्वदेशे सकल कार्याणि कारयति तथा महेश्वरोऽपि कैलासाचले स्थित्वा लोके तत्रतत्रस्थितजीवान् प्रतिपाद्य सर्वाणि कार्याणि कारयतीति चेन्न । कस्यागि जीवस्य तथाविधप्रतिपादकप्रतीतेरभावात् । परान् प्रतिपाद्य कारयति चेत् तस्य स्वातन्त्र्यकत्वाभावप्रसंगाच। वह जगह जगह जा कर कार्य करता हो तो अनेक जगहों में एकही समय कार्य नहीं हो सकेंगे। तथा हम जिन कार्यों को प्रत्यक्ष देखते हैं उन्हें करने के लिए हमारे सन्मुख के प्रदेश में ईश्वर नही आता है यह प्रत्यक्ष से ही स्पष्ट है । एक जगह बैठकर ईश्वर सर्वत्र कार्य करता हो यह भी सम्भव नही क्यों कि शरीर के द्वारा वहीं कार्य किया जा सकता है जहां प्रयत्न से हाथ, पात्र आदि अवयव पहुंच सकें (ईश्वर के अवयव सर्वत्र नहीं पहुंचते हैं यह प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है अतः वह सर्वकर्ता नहीं हो सकता । ) जैसे राजा अपने प्रासाद में बैठकर नौकरों को राज्य में जगह जगह भेज कर सत्र कार्य कराता है वैसे ही ईश्वर कैलास पर्व पर बैठकर जगत में सर्वत्र जीवों द्वारा कार्य कराता है यह कहना भी युक्त नहा । अमुक कार्य करने के लिए किसी जीव को ईश्वर की आज्ञा प्राप्त हुई हो यह देखा नही गया है। तथा ईश्वर यदि दूसरों द्वारा जगा के कार्य कराता है तो वह परतन्त्र होगा-स्वतन्त्र भाव से जगत् को नही हो सकेगा। अतः ईश्वर का जगत्कर्ता होना युक्त नही है।
१ एकत्र स्थित्वा करोति इति । २ पदार्थानाम् । ३ स्थाने स्थाने।
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