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विश्वतत्त्वप्रकाशः
की रचना की। इन में क्रमशः ५५ और ३४ पद्य हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वान मानते थे कि स्त्रियों को मुक्ति नही मिल सकती तथा केवल ज्ञान प्राप्त करने पर पुरुष भोजन नही करते-इन मतों का तार्किक शैलीमें खण्डन इन प्रकरणों में किया है। इस विषय में बाद में विद्वानों में जो वाद चलता रहा उस का मूलाधार प्रायः ये प्रकरण ही हैं।
[प्रकाशन—जैन साहित्य संशोधक खंड २ अंक ३-४ (मूलमात्र)]
शाकटायन सम्राट अमोघवर्ष (सन ८१४.८७८) के समकालीन थे। तदनुसार ९ वीं सदी का मध्य यह उन का समय है। शाकटायन शब्दानुशासन ( व्याकरण ) तथा उसकी अमोघवृत्ति ये उन के अन्य ग्रन्थ हैं।
२८. वसुनन्दि- इन्हों ने समन्तभद्र की आप्तमीमांसापर वृत्ति लिखी है । इन के संस्करण में आप्तमीमांसा के अन्त में एक मंगलश्लोक अधिक है – अकलंक के संस्करण में ११४ तथा वसुनन्दि के संस्करण में ११५ श्लोक हैं । विद्यानन्द ने इस भेद का उल्लेख किया है । यदि यह संस्करणभेद वसुनन्दि के पहले का नही हो तो वानन्दि का समय विद्यानन्द के पहले - नौवीं सदी के पूर्वार्ध में मानना होगा। उन की वृत्ति में इस का विरोधक कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु ऐसी स्थिति में मूलाचारवृत्ति तथा उपासकाध्ययन ये रचनाएं किसी अन्य वसुनन्दि की माननी होगी। इन दोनो का समय बारहवीं सदी में निश्चित हुआ है' । अतः देवागमवृत्ति के कर्ता इन से भिन्न हैं या अभिन्न यह प्रश्न अनुसन्धान योग्य है।
[प्रकाशनों की सूचना समन्तभद्र के परिचय में दी गई है । ]
२९. विद्यानन्द--- बौद्ध पंडितों के आक्रमणों से जैन दर्शन की रक्षा अकलंक ने की थी। उसी प्रकार नैयायिक तथा वेदान्ती पन्डितों के आक्षेपों का उत्तर देने का कार्य विद्यानन्द ने सफलतापूर्वक पूरा किया।
१) जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३०० में पं. नाथूराम प्रेमी । वसुनन्दिश्राव का चार की प्रस्तावना में पं. हीरालाल ।
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