________________
प्रस्तावना
*... आप्तपरीक्षा-तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम् ' आदि श्लोक को आधारभूत मानकर इस प्रकरण की रचना हुई है। इस के मूल श्लोक १२४ हैं तथा उन पर लेखक की ही गद्य टीका-आप्तपरीक्षालंकृति है जिस का विस्तार ३००० श्लोकों जितना है। इस प्रकरण में मुख्यतः चार मतों का निरसन है- नैयायिकसंमत ईश्वर, सांख्यसंमत प्रकृति, बौद्धसम्मत अद्वैतादिवाद तथा मीमांसकसंमत वेदप्रामाण्य इन का विचार किया है तथा इन की तुलनामें मोक्षमार्ग के उपदेशक तीर्थकर सर्वज्ञ की श्रेष्ठता स्पष्ट की है।
[प्रकाशन-१ मूल श्लोक-सनातन जैन ग्रंथमाला का प्रथम गुच्छक, १९०५, काशी; २ मल तथा टीका-सं. पं.गजाधरलाल, सनातन जैन ग्रंथमाला, १९१३ काशी, ३ मल श्लोक व हिंदी अनुवादपं. उमरावसिंह, काशी, १९१४:४ मल व टीका--जैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय, १९३०, बम्बई; ५ मल व टीका का हिंदी अनुवाद-स.पं. दरबारीलाल, वीरसेवामन्दिर १९४९, दिल्ली ]
प्रमाणपरीक्षा-इस प्रकरण का विस्तार १४०० श्लोकों जितना है। जैनमतानुसार प्रमाण का लक्षण सम्यग्ज्ञान ही हो सकता है,नैयायिकों का इन्द्रिय संनिकर्षादि को प्रमाण मानना अथवा बौद्धों का विकल्परहित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानना अयोग्य है यह इस में स्पष्ट किया है। तदनंतर प्रमाण का विषय अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार का होता है यह स्पष्ट किया है । अन्त में प्रमाणों की संख्या और उपभेदों का - विशेषतः अनुमान के अंगों का वर्णन किया है।
[प्रकाशन-मूल-सं. पं. गजाधरलाल, सनातन जैन ग्रन्थमाला, १९१४, काशी ]
पत्रपरीक्षा-यह प्रकरण गद्यपद्यमिश्रित है तथा इस का विस्तार ५०० श्लोकों जितना है । वादसभा में वादी गढ शब्दों से प्रथित तथा अनुमानप्रयोगसहित श्लोक को प्रतिवादी के सन्मुख रखता था-उसे पत्र
१) विद्यानन्द की दृष्टि में यह श्लोक तत्त्वार्थसूत्रकर्ता का ही है तथा समन्तभद्र ने इसी पर आप्तमीमांसा की रचना की है । इस मत के परीक्षण का सारांश ऊपर समन्तभद्र, के समयनिर्णय में दिया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org