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प्रस्तावना
१०७
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काफी ग्रन्थरचना की है। किन्तु तार्किक विषयों पर इन भाषाओं में विशेष साहित्य नही मिलता। हिंदी में अठारहवीं सदी में जयपुर के विद्वान पं. जयचन्द्र छाबडा ने प्रमेयरत्नमाला आदि कुछ .. ग्रन्थों का अनुवाद किया । पं. टोडरमल के प्रसिद्ध ग्रन्थ मोक्षमार्ग प्रकाश का कुछ अंश भी प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के तार्किक अंशों के किन्तु स्वतन्त्र रूप से हिन्दी या अन्य आधुनिक सदी तक कोई तार्किक ग्रन्थ लिखा गया हो ऐसा ज्ञात नही होता । सम्भवतः इन देशभाषाओं के समय साधारण जैन समाज की रुचि तार्किक चर्चा में नही रही थी । तथा पाण्डित्य प्रदर्शन का उद्देश देशभाषाओं की अपेक्षा संस्कृत में ग्रंथ लिखने से अधिक पूरा होता था । इस लिए जैन पण्डितों ने देशभाषाओं में तार्किक ग्रन्थों की रचना की ओर ध्यान नही दिया ।
अनुवाद जैसा है । भाषा में अठारहवीं
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९६. आधुनिक प्रवृत्तियां - उन्नीसवीं सदी में भारत में ब्रिटिश शासन दृढमूल हुआ । इस के राजनीतिक परिणाम चाहे जैसे हुए हों, किन्तु प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के अध्ययन में इससे आमूलाग्र परिवर्तन हुआ तथा इस क्षेत्र में नया उत्साह, अध्ययन की नई पद्धतियां तथा विचारविमर्श के नये साधन उत्पन्न हुए । तार्किक विषयों की दृष्टि से इस परिवर्तन का स्वरूप भी बहुविध था । एक ओर पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में आर्यसमाज की प्रवृत्तियों से जैन पण्डित प्रभावित हुए तथा दिल्ली आदि नगरों में दोनों ओर के पण्डितों में शास्त्रार्थ होने लगे । इन के विषय वेदों की प्रमाणता, ईश्वर का जगत्कर्तृत्व इत्यादि-पुराने ही थे अतः यह पुरानी वादपद्धति के पुनरुज्जीवन जैसा प्रयास था । यूरोप के शास्त्रज्ञों ने भूगोल- खगोल के बारे में जो सिद्धान्त निर्धारित किये वे जैन ग्रन्थों में वर्णित द्वीपसमुद्रादि की कल्पनाओं से भिन्न थे । अतः पं. गोपालदास बरैया आदि विद्वानों ने तर्कबल से जैन भूगोल का औचित्य सिद्ध करने का बहुत प्रयास किया । आधुनिक विज्ञान का परिचय होने पर कुछ जैन विद्वानों के मन में जैन पुराणों में वर्णित देवों· का स्वरूप, विक्रिया ऋद्धि, तीर्थंकरों के पंचकल्याणिक आदि के विषय
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