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सर्वज्ञसिद्धिः
इति हेतुप्रयोगस्यापि न वैयर्थ्यम् । किं च धर्मिणो विकल्पसिद्धत्वानङ्गीकारे 'वेदस्याध्ययनं सर्वे गुर्वध्ययन पूर्वकम् |' ( मीमांसाश्लोक वार्तिक, पृ. ९४९ ) इति सर्वस्य वेदाध्ययनस्य धर्मीकरणं कथं घटते' तस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणाविषयत्वेन प्रमाणप्रतिपन्नत्वाभावात् । ' अतीतानागतौ कालो वेदकारविवर्जितौ । ' ( तत्त्व संग्रह पृ. ६४३ ) इत्यत्रापि अतीतानागतकालयोर्धर्भीकरणं कथं युज्यते । तयोरपि प्रत्यक्षादिप्रमाणाविषयत्वात् उदात्तादयः सर्वध्वनिधर्मा अनित्या इत्यत्रापि देशकालान्तरितध्वनिधर्माणामपि पक्षीकरणं कथं स्यात् । तेषामपि प्रमाणाविषयत्वात् तस्माद् धर्मिणो विकल्पसिद्धत्वमङ्गीकर्तव्यम् ।
ननु एवं चेदाश्रयासिद्धो' हेत्वाभासो न स्यादिति चेत् मा भूदसौर का नो हानिः । अपसिद्धान्त इति चेन्न । अस्मसिद्धान्ते अविद्यमानसत्ताको अविद्यमाननिश्चय इति असिद्धस्य द्वैविध्यनिरूपणात् । तर्हि नही मानते उन के लिये अनुमान से सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है ।
मीमांसकों ने भी अपने हेतुप्रयोगों में विकल्प से सिद्ध धर्मी का आश्रय लिया है । ' वेद का सब अध्ययन गुरुपरम्परा से चलता है ' इस कथन में वेद का सब अध्ययन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात नही है - विकल्प से ही ज्ञात है । इसी तरह ' अतीत काल में और भविष्य काल में वेद के कर्ता नही हैं' इस कथन में अतीत काल और भविष्यकाल
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का ज्ञान प्रमाणसिद्ध नही है विकल्पसे सिद्ध है । उदात्त आदि सब ध्वनि के धर्म अनित्य हैं ' इस कथन में भी सब ध्वनि-धर्मों का ज्ञान प्रमाण सिद्ध नही है - विकल्पसिद्ध है । अत: सर्वज्ञ यह धर्मी भी विकल्पसिद्ध मानने में दोष नहीं है ।
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धर्मी के विकल्पसिद्ध होने के कारण ही जैन प्रमाणशास्त्र में असिद्ध हेत्वाभास के दो ही प्रकार माने हैं- अविद्यमान सत्ताक ( जिस में हेतु का अस्तित्व ही न हो ) और अविद्यमाननिश्चय ( जिस में हेतु का
२ भो जैन । ३ आश्रया सिद्धः ।
१ अत एव वेदाध्ययनं सर्वं विकल्प सिद्धम् । ३ जैनानाम् ।
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