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चार्वाक दर्शन- विचारः
अदृष्टरहितत्वासिद्धेः । अथ जीवादृष्टात् तद्भोगायतनस्य कथं स्तुतिपूजादिकमिति चेदुच्यते । भोक्तुरदृष्टाद् भोगो भोग्यवर्गश्च निष्पद्यते । तत्र स्वात्मनि वर्तमानसुख दुःख साक्षात्कारो भोगः । इन्द्रियान्तःकरणानुकूलप्रतिकूला भ्यामात्मनः सुखदुःखोत्पादको भोग्यवर्गः । तत्र तत्पुण्योदयात् शुभशरीरेन्द्रियान्तःकरणानां तदनुकूलपदार्थानां च निष्पत्तिः प्राप्तिरनु भुक्तिः तद्विपरीता नामनिष्पत्तिरप्राप्तिरननुभुक्तिः सुखसाक्षात्कृतिश्च भवति । तत्पापोदयादशुभशरीरेन्द्रियान्तःकरणानां प्रतिकूलपदार्थानां च निष्पत्तिः प्राप्तिरनुभुक्तिस्तद्विपरीतानाम' निष्पत्तिरप्राप्तिरननुभुक्तिर्दुःखसाक्षात्कृतिश्च भवति । सकलपदार्थानां तत्तभोक्तृभोग्यत्वेन तत्तददृष्ट निष्पन्नत्वान्नादृष्टजन्यं" किंचित् कार्यवैचित्र्यमस्ति । तस्माददृष्टस्यानुकूलप्रतिकूल पदार्थनिष्पादकप्रापकानुभावकप्रकारेण सुखदुःखलक्षणफलोत्पादने पर्यवसानम् ।
क्यों कि पत्थर भी खरपृथिवीकायिक जीवों के शरीर हैं अतः उन जीवों के अदृष्ट के अनुसार उन को स्तुति, पूजा आदि की प्राप्ति होती है । जीव के अदृष्ट से शरीर को स्तुतिपूजादि प्राप्त होना सम्भव नही यह आक्षेप भी उचित नहीं । अदृष्ट का फल भोग और भोग्यवर्ग इन दो साधनों से मिलता है । जीव को अपने आप में सुखदुःख आदि का साक्षात् अनुभव होता है यह भोग है । इंद्रिय और अन्तःकरण के अनुकूल या प्रतिकूल हो कर सुख या दुःख उत्पन्न करे वह भोग्यवर्ग है । पुण्य का उदय हो तो शुभ शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण प्राप्त होते हैं, अनुकूल पदार्थ प्राप्त होते हैं तथा उन से सुख का अनुभव प्राप्त होता है । पाप का उदय हो तो अशुभ शरीर, इंद्रिय और अन्तःकरण प्राप्त होते हैं, प्रतिकूल पदार्थ प्राप्त होते हैं तथा उन से दुःख का अनुभव प्राप्त होता है | अतः अदृष्ट के फल के विना कोई कार्य उत्पन्न नही होता ।
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१ मया जैनेन । २ स्त्र्यादिः भोग्यवर्गः भोग्यवर्गात् समुत्पन्नन्सुखदुःखसाक्षात्कारो भोगः । ३ शुभशरीरेन्द्रियान्तःकरणप्रतिकूलानाम् । ४ अशुभशरीरेन्द्रियान्तःकरण विपरीतानाम् । ५ भोक्तृ । ६ परिसमाप्तिः ।
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