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चार्वाक-दर्शन-विचारः
यत्सर्वदा नास्ति तच्चेतनं न भवति यथा खरविषाणमिति चेत्र। हेतोरन. ध्यवसितत्वात् । कथमिति चेत् सपक्षे असत्त्वादनिश्चितम्याप्तिकत्वे पक्षे एव वर्तमानत्वात् दृष्टान्तस्याप्याश्रयहीनत्वाच्च । अथ आद्यं चैतन्य चैतन्यपूर्वकं चिद्विवर्तत्वात् मध्यचिद्विवर्तवदिति अनादित्वसिद्धिरिति चेन्न । हेतोरकिंचित्करत्वात् । तत्कथमिति चेत् 'सिद्धे प्रत्यक्षादिवाधिते च साध्ये हेतुरकिंचित्करः' [परीक्षामुख ३-३५] इति जैनैरभिहितत्वात्, अत्र त्वाद्यचैतन्यस्य मातापितचैतन्यपूर्वकत्वेन सिद्धत्वात् । ननु आद्यं चैतन्यं चैतन्योपादानकारणकं चिद्विवर्तत्वात् मध्यचिद्विवर्त. वदिति अनादित्वं भविष्यतीति चेन्न । दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् । कुत इति चेत् मध्यचिदविवर्तस्य कायोपादानकारणकत्वेन चैतन्योपादानकारणकत्वाभावात् । अथ अन्त्यं चैतन्यम् उत्तरचैतन्योपादानकारणं चिद्विवर्तत्वात् मध्यचिद्विवर्तवत् इत्यनन्तत्वसिद्धिरिति चेन्न । होता वह चेतन नही होता- यह अनुमान योग्य नहीं क्यों कि चैतन्य
और सर्वदा विद्यमान रहना इन में कोई निश्चित सम्बन्ध नही है। ( आकाश सर्वदा विद्यमान रहता है किन्तु चेतन नही होता।) प्रत्येक चैतन्य किसी पूर्ववर्ती चैतन्य का उत्तररूप होता है अतः प्रथम ( जन्म समय के) चैतन्य के पहले भी चैतन्य का अस्तित्व होता है- इस प्रकार जीव के अनादि होने का अनुमान किया जाता है किन्तु यह योग्य नही। जन्मसमय के चैतन्य के पहले मातापिता का चैतन्य होता ही है यह प्रत्यक्षसिद्ध होने पर उससे भिन्न अन्य चैतन्य की कल्पना निरर्थक है। जन्मसमय के चैतन्य का उपादानकारण भी चैतन्य ही होगा अतः जन्मके पूर्व चैतन्य का अस्तित्व होता है यह अनुमान भी योग्य नही, क्योंकि जन्म समय के चैतन्य का उपादान कारण शरीर होता है-- उसके लिये किसी अन्य चैतन्य की कल्पना निरर्थक है। प्रत्येक चैतन्य उत्तरवर्ती चैतन्य का उपादान कारण होता है अतः मृत्युसमय का चैतन्य भी उत्तरवर्ती चैतन्य का उपादान कारण होता है- यह अनुमान भी योग्य नही क्यों कि चैतन्य का उपादान कारण शरीर है यह पहले कहा ही है। इस प्रकार अनुमान से जीव के अनादि-अनन्त होने का समर्थन नही होता।
१ सर्वदास्तीत्यादौ सपक्षे आकाशादौ। २ यथा खरविषाणमिति दृष्टान्तस्य । ३ मातृगर्भस्थम्। ४ चैतन्यमेव उपादानकारणं यस्य। ५ मरणसमयम् ।
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