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विश्वतत्त्वप्रकाशः
विचार किया है । इस का एक श्लोक विमलदास ने अकलंकदेव के नाम से उद्धृत किया है इस लिए इस ग्रन्थ को पहले अकलंककृत समझा गया था । इस पर केशवाचार्य तथा शुभचन्द्र ने वृत्तियां लिखी हैं जो अभी अप्रकाशित हैं । महासेन का उल्लेख ९६ वादियों के विजेता के रूप में पद्मप्रभ की नियतसार टीका में मिलता है । पद्मप्रभ का मृत्युवर्ष सन १९८६ सुनिश्चित है । अतः महासेन का समय बारहवीं का सदी मध्य या उस से कुछ पहले प्रतीत होता है ? |
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[ प्रकाशन -- १ लघीयस्त्रयादिसंग्रह में - सं. पं. कल्लाप्पा निटवे, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, १९१६, बम्बई २ शान्तिसोपान नामक संग्रह में- अनुवादक ज्ञानानन्द, अहिंसा ग्रंथमाला, १९२१ काशी ]
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५६. अजितसेन - - इन्हों ने परीक्षामुख की टीका प्रमेयरत्नमाला पर न्याय गिदीपिका नामक टीका लिखी है । दक्षिण के शिलालेखों में बारहवीं सदी के प्रारम्भ के अजितसेन नामक आचार्य का कई बार उल्लेख मिलता है । प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता वे ही हैं या उन के बाद के कोई अन्य आचार्य हैं यह विपय विचारणीय है ।
५७. चार कीर्ति - इन के दो ग्रन्थों का परिचय मिलता है । एक परीक्षामुख को प्रमेयरत्नालंकार नामक टीका तथा दूसरी प्रमेयरत्नमाला की अर्थप्रकाशिका टीका । पहली टीका के प्रारम्भ तथा अन्त में उन्हों ने अपने लिए पण्डिताचार्य उपाधि का प्रयोग किया है तथा वे श्रवणबेळगोळ के देशी गण के मठाधीश थे यह भी बतलाया है । इस मठ में बारहवीं सदी से जो मठाधीश हुए हैं उब सब को चारुकीर्ति यह
१ ) एनल्स ऑफ दि भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टियूट भा. १३, प्र. ८८ में डॉ. उपाध्ये का लेख इस विषय में द्रष्टव्य है । २ ) जैन सिद्धान्त भवन, आरा का प्रशस्ति संग्रह पृष्ठ १- ३ | ३) जैन शिलालेख संग्रह भा. ३ लेख क्रमांक ३०५, ३१९, ३२६, ३४७ आदि । ४ ) जैन सिद्धान्त भवन, आरा, प्रशस्तिसंग्रह (पृ. ६८-७१ ) में इस टीका का नाम प्रमेयरत्नमालालंकार बताया है किन्तु इसी प्रशस्ति में स्पष्ट रूप सेप ५ में ग्रन्थ का नाम प्रमे रत्नालंकार बताया है - यह अनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमाला की टोका नहो - परीक्षामुख को ही टीका है ।
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