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विश्वतत्त्वप्रकाशः
[ प्रकाशन - सं. पं. सुखलाल तथा बेचरदास, गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर, अहमदाबाद, सन १९२३ - ३० । इस संस्करण में विविध ग्रंथों से दिये हुए तुलनात्मक टिप्पण उल्लेखनीय हैं । ]
३६. वादिराज - आचार्य वादिराज द्रविडसंधान्तर्गत नन्दिसंघ अरुंगल अन्वय के प्रमुख आचार्य थे I वे श्रीपाल देव के प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य तथा रूपसिद्धिकर्ता दयापाल के गुरुबन्धु थे । कल्याण के चालुक्य राजा जयसिंह जगदेकमल्ल को सभा में वे सन्मानित 'हुए थे तथा सिंहपुर नामक ग्राम उन की जागीर में समाविष्ट था । दक्षिण के शिलालेखों में उन की प्रशंसा के अनेक पद्य प्राप्त होते हैं
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वादिराज के पांच ग्रन्थ प्राप्त हैं तथा एक अनुपलब्ध है । उन का पार्श्वनाथ चरित शक सं. ९४७ = सन १०२५ में पूर्ण हुआ था । यशोधर चरित, एकीभावस्तोत्र, न्यायविनिश्चयविवरण व प्रमाणनिर्णय ये 'उन के अन्य प्रकाशित ग्रन्थ हैं । उन के ' त्रैलोक्यदीपिका ' ग्रन्थ का उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति में मिलता है । इन छह ग्रन्थों में प्रस्तुत विषय 'की दृष्टि से दो का परिचय आवश्यक है ।
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न्यायविनिश्चयविवरण — यह अकलंकदेव के न्यायविनिश्चय की टीका है । लेखक ने इसे ' तात्पर्यावद्योतिनी व्याख्यान रत्नमाला. यह नाम भी दिया है । इस का विस्तार २०००० इलोकों जितना है तथा यह गद्यपद्य मिश्रित है - पद्यों की संख्या
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२५०० के आसपास है । मूलग्रन्थ के अनुसार इस टीका के भाग हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान ' तथा प्रवचन । इन विषयों के बारे में विशेषकर प्रज्ञाकर आदि बौद्ध 'आचार्यों के आक्षेपों का वादिराज ने विस्तार से खण्डन किया है ।
भी तीन
[प्रकाशन-सं. पं. महेन्द्र कुमार, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
१९४९]
प्रमाणनिर्णय - इस ग्रन्थ में प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष व आगम इन चार अध्यायों में प्रमाणस्वरूप का विशद किन्तु संक्षिप्त वर्णन किया है।
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१ ) जैन शिलालेखसंग्रह भा. १ पृ. १०८ - त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह | जिनराजत एकस्मादेकस्माद् वादिराजतः ॥
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