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४२. अनन्तवीर्य ( द्वितीय ) — इन्हों ने माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला नामक टीका लिखी है। वैजेय के पुत्र हीरप के अनुरोध पर शांतिषेण के लिए इस टीका का निर्माण हुआ । अनन्तवीर्य ने प्रभाचन्द्र का स्मरण किया है । तथा उन की कृति का उपयोग हेमचन्द्र ने किया है । अतः ग्यारहवीं सदी का अन्तिम चरण उन का कार्यकाल निश्चित होता है । प्रमेयरत्नमाला पर अजितसेन की न्यायमणिदीपिका तथा चारुकीर्ति की अर्थप्रकाशिका ये दो टीकाएं उपलब्ध हैं । इन का परिचय आगे दिया है ।
[ प्रकाशन- -१ सं. सतीशचंद्र विद्याभूषण, विब्लॉथिका इण्डिका, १९०९, कलकत्ता; २ सं. पं. फूलचन्द्र, विद्याविलास प्रेस, १९२८, काशी; ३ आधारित मराठी अनुवाद - पं. जिनदासशास्त्री फडकुले, लक्ष्मीसेन ग्रन्थमाला, १९३७, कोल्हापूर; ४ पं. जयचन्द्रकृत हिंदी वचनिका, अनंतकीर्ति ग्रन्थमाला, बम्बई ]
प्रस्तावना
४३. चन्द्रप्रभ— इन्हों ने श्वेतांबर परम्परा के पौर्णमिक गच्छ की स्थापना सं. ११४९ सन १०९२ में की थी । अतः ग्यारहवीं सदी का अन्तिम चरण यह उन का कार्यकाल निश्चित है । दर्शनबुद्धि तथा प्रयत्नको ये इन के दो ग्रन्थ हैं । प्रमेयरत्नकोय का विस्तार १६८० श्लोकों जितना है । इस में २३ प्रकरण हैं तथा सर्वज्ञसिद्धि आदि विविध वादविषयों की चर्चा उन में की है ।
[ प्रकाशन -- सं. एल्. सुआली, जैनधर्मप्रसारकसभा, भावनगर, १९१२ ]
४४. मुनिचन्द्र -- बृहद्गच्छ के आचार्य मुनिचंद्र ने हरिभद्रकृत अनेकांत जयपताका पर उद्योत नामक टिपन लिखे हैं । इस रचना का विस्तार २००० श्लोकों जितना है । इस की रचना में उन के शिष्य रामचन्द्र गणी ने उन की सहायता की थी । मुनिचन्द्र की ज्ञात तिथियां सन १११२-१११८ तक हैं । वे देवसूरि के गुरु थे । उन की अन्य
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१) प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति । मादृशाः क्व नु गध्यः ते ज्योतिरिंगणसंनिभाः ॥ २) प्रकाशनों की सूचना हरिभद्र के परिचय में दी है ।
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