________________
विश्वतत्त्वप्रकाशः
युक्त्यनुशासनालंकार-यह समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन की टीका है, इस का विस्तार ३००० श्लोकों जितना है। मूल में उल्लिखित चार्वाकादि दर्शनों के पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षों का इस में विस्तार से स्पष्टीकरण किया है।
. [प्रकाशन-मूल-सं. श्रीलाल व इन्द्रलाल, माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला १९२०, बम्बई ]
विद्यानन्दमहोदय--यह लेखक की प्रथम रचना थी जो अनु. पलब्ध है। लेखक के अन्य ग्रन्थों में इस के जो उल्लेख है? उन से पता चलता है कि इस में अनुमान का स्वरूप, द्रव्य के एकत्र का निषेध, सर्वज्ञ विषयक आक्षेपों का समाधान आदि विषयों की चर्चा थी। १२ वी सदी में देवसूरि ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है। अतः तब तक यह ग्रन्थ विद्यमान था यह स्पष्ट है । किन्तु बाद में उस का पता नही चलता।
श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-यह ३० पद्यों का छोटासा स्तोत्र है। है । श्रीपुर के पार्श्वनाथ जिन की प्रशंसा करते हुए इस में पहले स्याद्वाद का समर्थन किया है तथा बाद में मीमांसक, नैयायिक, सांख्य तथा बौद्धों के प्रमुख मतों का संक्षेप में खण्डन किया है । अन्तिम श्लोक में विवानन्द महोदय का श्लेष उल्लेख है अतः यह प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता की ही कृति प्रतीत होती है । पुचिका में कर्ता के गुरु का नाम अमर कीर्ति दिया हैइस का अन्य साधनों से समर्थन नहीं होता।
[प्रकाशन-मल व मराठी टीका--पं. जिनदास शास्त्री, प्र.हिराचंद गौतमचंद गांधी, निमगांव, १९२१ ]
.
१) अष्टसहस्त्री पृ. २९०, तत्त्वार्थश्लोकत्रार्तिक पृ. २७२, आप्तपरीक्षा पृ. ६४ आदि. २) स्याद्वादरत्नाकर पृ. ३४९. ३) पं. जिनदासशास्त्री ने इसे सिरपुर के अन्तरिक्षपार्श्वनाथ का उल्लेख माना है (प्रस्तावना पृ. ३) किन्तु यह सन्दिग्ध है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org