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विश्वतत्त्वप्रकाशः
पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयप्राभूत, अष्टप्राभूत, नियमसार, द्वादशानुप्रेक्षा तथा दशभक्ति ये कुन्दकुन्द के उपलब्ध ग्रन्थ हैं । इन सब की शैली आगमिक- अध्यात्मिक है । तथापि प्रसंगवश तार्किक शैली का भी आश्रय कुन्दकुन्द ने लिया है । इस दृष्टि से प्रवचन सार के प्रथम तथा द्वितीय अधिकार उल्लेखनीय हैंइन में सर्वज्ञ के दिव्य अतीन्द्रिय ज्ञान का समर्थन तथा ज्ञान के विजयभूत द्रव्य-गुण- पर्याय का वर्णन महत्वपूर्ण है । समयप्राभूत में आत्मा को सर्वथा अकर्ता मानने के सांख्यमत का निषेध किया है (गा. १२२), साथ ही आलाको परद्रव्यों का कर्ता माननेवाले वैष्णव मत का भी निषेध किया है ( गा. ३२२) । यदि आत्मा परद्रव्यों का कर्ता हो तो वह परद्रव्यमय होगा यह साधारण नियम भी महत्वपूर्ण है ( गा. ९९ ) । स्याद्वाद - सप्तभंगी का स्पष्ट वर्णन भी पचास्तिकाय (गा. १४ ) तथा प्रवचनसार ( २ - २३ ) में प्राप्त होता है । निश्चयनय और व्यवहारनय का विशद वर्णन तो कुन्दकुन्द की विशेषता है । आत्मा के ज्ञान और दर्शन दोनों स्वपरप्रकाशक हैं-दर्शन को स्वप्रकाशक और ज्ञान को परप्रकाशक मानना उचित नही है यह नियमसार का वर्गन (गा. १६० - १७० ) भी तार्किक शैली में ही है ।
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९. उमास्वाति — उचैर्नागर शाखा के वाचक उमास्वाति का जन्म न्यग्रोधिका ग्राम में हुआ था । वे कौभीषणि गोत्र के स्वाति तथा उन की पत्नी वात्सी के पुत्र थे । उन के दीक्षागुरु ग्यारह अंगों के ज्ञात घोषनन्दि क्षमण थे तथा विद्यागुरु वाचकाचार्य मूल थे । उन्हों ने कुसुमपुर ( पाटलिपुत्र = वर्तमान पटना, बिहार की राजधानी) में रहते हुए भाष्यसहित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की रचना की ।
१. यह सब वर्णन तत्त्वार्थभाष्य की प्रशस्ति के अनुसार है । दिगम्बर परम्परा में वीरसेन तथा विद्यानन्द ने तत्त्वार्थकर्ता का नाम गृद्धपिच्छ दिया है तथा शिलालेखों में गृद्धपिच्छ यह उमास्वाति का विशेषण माना है । दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का स्वोपज्ञ भाष्य मान्य नही है ।
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