Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
केवल आत्माकी सहायता से उत्पन्न हुये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं, जैसे कि अन्य लोगोंने भावनाज्ञान या योगिप्रत्यक्षको माना है । कल मेरा भाई आवेगा, चांदीका भाव चढ जायगा, कुछ दिनमें लढाई ठनेगी, कुछ आपत्ति आनेवाली है, इत्यादि ज्ञान यद्यपि श्रुतज्ञान हैं, फिर भी मन इन्द्रियद्वारा विशेष उपयोग लग जानेसे किन्होंने इनको प्रत्यक्षसदृश माना है । जैनोंमें भी स्वानुभूतिको केवलज्ञान सदृश कहीं कहीं लिख दिया है, बात यह है कि अतींद्रिय प्रत्यक्षका मानना दार्शनिकोंको अनिवार्य पडेगा ।
सिद्धे हि केवलज्ञाने सर्वार्थेषु स्फुटात्मनि ।
कार्त्स्न्येन रूपषु ज्ञानेष्ववधिः केन बाध्यते ॥ २३ ॥
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सोने कि कालिमाके समान अज्ञान, कषाय, आदि दोष और ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक आवरणोंकी हानि क्रमक्रमसे बढती हुयी देखी जा रही है । अतः वह किसी आत्मामें पूर्ण रूपसे भी हो चुकी है । जिस आत्मामें आवरण सर्वथा नहीं हैं, वही लोकालोकको जाननेवाला केवल ज्ञानी है, तथा सूक्ष्म, व्यवहित, और विप्रकृष्ट पदार्थ ( पक्ष ) किसी न किसके प्रत्यक्ष हैं । ( साध्य ) हम लोगोंके अनुमान, आगमोंद्वारा जाने गये होने से (हेतु) जैसे कि अग्नि, इन्दौर, पुराने बाबा, आदि किसी न किसी के प्रत्यक्ष हैं [ थे ] । इस प्रकार त्रिकाल त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थोंमें, अत्यन्त विशदस्वरूप ज्ञान करनेवाले केवलज्ञानके सिद्ध हो जानेपर यथायोग्य संसारी जीव और पौगलिकरूपी पदार्थोंही में पूर्णरूप से विशद हो रहे, ज्ञानों में भला अवधिज्ञान किसके द्वारा बाधा जा सकता है ? अर्थात् सबको स्पष्ट जाननेवाला केवलज्ञान जब सिद्ध हो चुका तो केवल रूपीपदार्थों को स्पष्टरूपसे जाननेवाला अवधिज्ञान तो सुलभताते सिद्ध हो जाता है । " सहस्रे पञ्चाशत् " सहस्र में पचास तो अवश्य हैं।
परचित्तागतेष्वर्थेष्वेवं संभाव्यते न किम् ।
मनः पर्ययविज्ञानं कस्यचित्प्रस्फुटाकृति ॥ २४ ॥
जब केवलज्ञान सिद्ध हो चुका तो इसी प्रकार दूसरेके या अपने चित्तोंमे प्राप्त हुये अर्थोंमें किसी आत्मा अधिक विशद आकारोंवाला हो रहा, मन:पर्यय ज्ञान क्यों नहीं सम्भवनीय है ? अर्थात् सबका दादा गुरु केवलज्ञान प्रसिद्ध हो चुका है तो उसके शिष्यसमान अवधि मन:पर्यय, तो क्लुप्त हैं । अपने और पराये मनद्वारा व्यक्त अव्यक्तरूपसे चीते, नहीं चीते, अधचीते यथायोग्य द्वीप पदार्थोंका विशद प्रत्यक्ष करनेवाला विकल्पयुक्त मन:पर्यय ज्ञान किसी संयमी के हो जाता है ।
स्वल्पज्ञानं समारभ्य प्रकृष्टज्ञानमंतिमम् ।
कृत्वा तन्मध्यतो ज्ञानतारतम्यं न हन्यते ॥ २५ ॥