Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 3
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामाणः
दौड जाओ। कमी कमी जिसको जानते हैं उसमें प्रवृत्ति और प्राप्ति भी नहीं होती है। अतः श्रुतज्ञान प्रमाण नहीं है। प्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार कहनेवाला वादी स्वस्थ नहीं है । मसके समान अव्यवस्थित होकर करनेवाला है । क्योंकि योंतो यानी कहीं कहीं विसम्वाद हो जानेसे सभी ज्ञानोंमें यदि अप्रमाणपना धर दिया जायगा, गधे, घोडे सब एक भावसे हांके जायेंगे " टकासेर भाजी टकासेर खाजा" वेचा जायगा, तब तो प्रत्यक्ष, अनुमान, आदिकोंको भी अप्रमाणपनेकी आपत्ति आवेगी, ये भी तो कोई कहीं, विसम्बादी हो रहे हैं । यदि झूठे ज्ञानोंको टालकर उन सच्चे ज्ञानोंमें सम्बादकपनेसे प्रमाणपना मानोगे तो तिस ही कारण श्रुतज्ञान भी प्रमाण हो जाओ। कारण कि उस श्रुतज्ञानसे अर्थको जामकर प्रवर्तनेवाला पुरुष अर्थक्रियामें विसम्वादी नहीं होता है। जैसे कि प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे अर्थको जानकर प्रवृत्ति करनेवाला पुरुष ठगाया नहीं जाता है । हां, प्रमाणपन और अप्रमाणपनका विवेक करना आवश्यक है। यहां सूत्रमें श्रुतवचन करके श्रुतज्ञानकी अप्रमाणताको चाहनेवाला पुरुष ही परास्त कर दिया गया विचार लेना चाहिये या इस विषयको स्पष्ट देख लेना चाहिये।
अत्रावध्यादिवचनात् किं कृतमित्याह ।
इस सूत्रमें अवधि आदि अर्थात् अवधि, मनःपर्यय, और केवलज्ञान के कथनसे क्या किया गया है ! ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य व्याख्यान करते हैं।
जिघ्रत्यतींद्रियज्ञानमवध्यादिवचोबलात् । प्रत्याख्यातसुनिर्णीतबाधकत्वेन तद्गतेः ॥ २२ ॥
जो चार्वाक जडवादी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको ही मानते हैं, अतीन्द्रियप्रत्यक्षको स्वीकार नहीं करते हैं, किंतु उन अतीन्द्रियज्ञानोंके बाधक कारणोंका प्रत्याख्यान भले प्रकार निर्णीत हो चुका है, अतः उन अतीन्द्रिय प्रत्यक्षोंकी सिद्धि हो जाती है । जगत्में बाधकोंके असंभवका भले प्रकार निर्णय हो जानेसे पदार्थोकी सत्ता मानली जाती है। करोडपति धनिकके रुपयोंको एक एक कर कौन ठलुआ गिननेको बैठे हैं ? केवल बाधकामावसे कोटि अधिपतिकी सत्ता मानली जाती है। सम्भावनावश असंख्य पदार्थोको बाजार या देशान्तर कालान्तरोंमें साधारण, लोग जान रहे हैं । उसमें भी बाधकोंका नहीं उपस्थित होना ही निर्णायक है । औषधियोंमें रोगको दूर करनेकी शक्तियोंका बहिरंग इन्द्रियोंसे जन्य प्रत्यक्षज्ञान नहीं हैं। फिर भी बाधकोंके खण्डन किये जा चुकनेका भली भांति निर्णय हो जानेसे अनुमान द्वारा शक्तियोंका ज्ञान कर लिया जाता है । प्रथमसे ही उपादानोंमें कार्यका ज्ञान भी योंही होता है । इस सूत्रमें अवधि आदिकके वचनकी सामर्थ्यसे अतीन्द्रिय ज्ञानोंके उपादान करनेकी गन्ध आरही है, बहिरंग इन्द्रियोंका अतिकम कर