________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 14 परतोऽयमपेक्षस्यात्मनः स्वस्य परस्य वा। मनःपर्यय इत्यस्मिन्पक्षे बाह्यनिमित्तवत् // 9 // मन:परीत्यानुसंधाय वायनं मन:पर्यय इति व्युत्पत्तौ बहिरंगनिमित्तकोऽयं मनःपर्यय इति बाह्यनिमित्तप्रतिपत्तिरस्य कृता भवति। न मतिज्ञानतापत्तिस्तस्यैवं मनसः स्वयं / निर्वर्त्तकत्ववैधुर्यादपेक्षामात्रतास्थितेः॥१०॥ क्षयोपशममाबिभ्रदात्मा मुख्यं हि कारणं / तत्प्रत्यक्षस्य निर्वृत्तौ परहेतुपराङ्मुखः // 11 // मनोलिङ्गजतापत्तेर्न च तस्यानुमानतः। प्रत्यक्षलक्षणस्यैव निर्बाधस्य व्यवस्थितेः॥१२॥ नन्वेवं मनःपर्ययशब्दनिर्वचनसामर्थ्यात्तद्वाह्यप्रतिपत्तिः कथमतः स्यादित्याहयदा परमन:प्राप्तः पदार्थो मन उच्यते। तात्स्थ्यात्ताच्छब्द्यसंसिद्धमंचक्रोशनवत्तदा // 13 // तस्य पर्ययणं यस्मात्तद्वा येन परीयते / स मनःपर्ययो ज्ञेय इत्युक्तेस्तत्स्वरूपवित् // 14 // इस ज्ञान में बहिरंग कारणा की प्रतिपत्ति किस प्रकार होती है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं - अपने अथवा दूसरे के मन की अपेक्षा रखने वाला यह मनःपर्ययज्ञान अन्य बहिरंग कारण से उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस व्युत्पत्ति के करने पर बहिरंग निमित्त कारण की ज्ञप्ति हो जाती है।।९।। मन:+परि+इण+घञ्+सु मनः (मन:स्थित) का अनुसंधान कर जो प्रत्यक्ष जानता है वह मनःपर्यय है। इस प्रकार व्युत्पत्ति करने पर जिसका बहिरंग निमित्तकारण मन है-ऐसा यह मन:पर्ययज्ञान है। इस प्रकार मन:पर्यय ज्ञान के बहिरंग निमित्त की प्रतिपत्ति कर ली गई है। इस प्रकार मनस्वरूपनिमित्त से उत्पन्न होने के कारण उस मन:पर्ययज्ञान को मतिज्ञानपने का प्रसंग आएगा। यह आपत्ति उठाना ठीक नहीं है क्योंकि मानस मतिज्ञान को मन स्वयं बनाता है किन्तु मन:पर्ययज्ञान का सम्पादकपना मन को प्राप्त नहीं है केवल मन की अपेक्षा है। . अपेक्षामात्र से स्थित हो रहे मन को मानसमतिज्ञान के समान मन:पर्यय का सम्पादकपना नहीं है अत: मन:पर्यय ज्ञान में मन कारण नहीं होने से मन:पर्यय ज्ञान मतिज्ञान नहीं है॥१०॥ उस मन:पर्यय प्रत्यक्षज्ञान की उत्पत्ति करने में मुख्य कारण मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम का धारक आत्मा ही है,जो आत्मा अन्य इन्द्रिय, मन, ज्ञापक लिंग, व्याप्ति, संकेतस्मरण आदि दूसरे कारणों से पराङ्मुख होता है अर्थात् अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान की उत्पत्ति में प्रतिबंधकों से रहित केवल आत्मा ही कारण माना गया है॥११॥ मन का सम्बन्ध होने से मन:पर्यय ज्ञान को अनुमान ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि मन:पर्यय ज्ञान के प्रत्यक्ष लक्षण का विरोध नहीं है। प्रत्यक्ष लक्षण की निर्बाध व्यवस्था है अर्थात्-लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण पूर्वक मन:पर्यय ज्ञान नहीं हुआ है किन्तु बाधाओं से रहित होते हुए प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण की ही मन:पर्यय में समीचीन व्यवस्था है॥१२॥ शंका - इस प्रकार मन:पर्यय शब्द की इस निरुक्ति के बल से ही उस मन:पर्यय के बाह्य कारणों की प्रतिपत्ति कैसे हो सकती है? इस पर आचार्य कहते हैं। जिस प्रकार दूसरे के मन में स्थित पदार्थ 'मन' ऐसा कहा जाता है क्योंकि तत् (उस) में स्थित होने के कारण तत् शब्दपना सिद्ध हो जाता है, जैसे कि “मञ्चाः क्रोशन्ति" मचान गा रहे हैं, या चिल्ला रहे हैं। अर्थात् यहाँ खेतों में या बगीचों में पशु, पक्षियों के भगाने, उड़ाने के लिए बाँधे गये मंचों पर बैठे हुए मनुष्यों के शब्द करने पर मचानों का शब्द करना व्यवहृत होता है। इस प्रकार कथन करने से उस