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श्रावकाचार
तारणतरण
अगाढ दोष यह है कि सर्व धर्मके स्थान चैत्यालयादि बराबर होनेपर भी अपने बनाए हुएमें अधिक राग करना, अन्यमें कम करना इत्यादि।
ये मात्र स्थूल दृष्टांत हैं। सूक्ष्म चल व अगाढ दोष अनुभवगम्य हैं
पत्थरकी लकीर समान न मिटनेवाला क्रोध, पत्थरके खंभ समान न नमनेवाला मान, वासकी जड़के समान तीन तम टेढापन माया, मजीठके रंग समान न मिटनेवाला लोभ, अनंतानुबन्धी चार कषायके दृष्टांत हैं। इन सम्यग्दर्शनके पाधकोंके दूर करनेका उपाय वैराग्यकी भावना है। यह भावना कि एक शुद्ध आत्मा ही सार है उपादेय है, मोक्ष ही सार है. संसार प्रसार है। भोग रोगके समान शरीरोंका सम्बन्ध कारावासके समान है। प्रथम तो मुमुक्षुको सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर पक्का श्रद्धान लाना चाहिये । उनहीकी भक्ति करनी चाहिये । प्राण कंठगत होनेपर भी कुदेवादिकी भक्ति न करनी चाहिये । फिर इनकी भक्तिमें चार काम करने चाहिये।
(१) श्री जिनेन्द्रदेव-अरहंत सिद्धकी गाढ भक्ति, उनके गुणोंकी स्तुति. (१) शास्त्रकी म भक्तिमें शास्त्रका भलेप्रकार नित्य अभ्यास करते हुए शास्त्र के अोंका धारण, मनन, विचार, (३) ॐ आत्मज्ञानी गुरुओंकी संगति-उनसे तत्वोंका स्वरूप समझना, (४) एकांतमें बैठकर नित्य प्रात:काल
व सायंकाल सामायिक करते हुए आत्माको सबसे भिन्न विचार करना। इन चार उपायों को बरावर करते रहना चाहिये।
शास्त्रके बारा जीवादि सात तत्वका ठीक २ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये क्योंकि इनका स्वरूप ज्ञान सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिमें परम उपकारी है। सात तत्वोंके व्यवहारज्ञानके लिये श्री उमास्वामी ॐकृत तत्वार्थसूत्र और निश्चयज्ञानके लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत पंचास्तिकाय, प्रवचनसार तथा
समयसार ग्रंथोंका भलेप्रकार अभ्यास करना चाहिये। यहां प्रकरण पाकर सात तत्वोंका कुछ स्वरूप कहा जाता है
(१) जीव तत्व-यह जीव ज्ञान दर्शन सुख धीर्यादि गुणधारी अमूर्तीक है। प्रत्येक जी की सत्ता भिन्न है, यह अनादि अनंत अविनाशी है । स्वभावसे यह रागादिका व कर्मबंधकान कर्ता है, न उनके फलका भोक्ता है। मात्र अपनी वीतराग परिणतिका कर्ता व आत्मीक आनंदका भोक्ता
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