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आचाराग की मूक्तियां
इक्कीम ८४. आत्मा को गरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त गरीर को धुन डालो ।
८५ अपने को कम करो, तन-मन को हल्का करो।
अपने को जोर्ग करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो। ८६ जिस तरह अन्नि पुगने मूबे काठ को गोघ्र ही भस्म कर डालती है,
उनी तरह सतत अप्रमत्त रहनेवाला आत्मसमाहित नि स्पृह माचक
कर्मों को कुछ ही क्षणो मे श्रीण कर देता है । ८७ जिसको न कुछ पहले है सोर न कुछ पीछे है, उसको वीच मे कहा से होगा?
[जिम मायक को न पूर्वभुक्त भोगो का स्मरण होता है, और न भविप्य के भोगो की ही कोई कामना होती है, उसको वर्तमान मे
भोगामक्ति कैसे हो सकती है ? ] ८८ जो आरंभ (=हिला) मे उपग्त है, वही प्रज्ञानवान् बुद्ध है ।
८६ जो कुगल हैं, वे काम भोगो का सेवन नहीं करते।
१० जिसकी कामनाएं तीव्र होती है, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है, और जो
मृत्यु से ग्रस्त होता है वह गाश्वत मुग्त्र से दूर रहता है।
परन्तु जो निष्काम होता है, वह न मृत्यु से ग्रस्त होता है, और न गाश्वन मुम्ब से दूर । ९१ जो कर्तव्यपथ पर उठ खडा हुआ है, उसे फिर प्रमाद नही करना
चाहिए।
६२. मसार मे मानव भिन्न-भिन्न विचार वाले है ।
६३ वस्नुन बन्धन और मोक्ष अन्दर मे ही है ।
६४ अपनी योग्य शक्ति को कभी छुपाना नहीं चाहिए ।