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सोलहफारण धर्म । उपर कहे अनुसार सत्वों तथा देव, धर्म, गुरुका श्रद्धान करते हुए सम्यग्दर्शनको बढ़ानेवाले अष्ट अङ्गोंको भी धारणा करना चाहिये । क्योंकि कहा है
दर्शनम् नाङ्गहिनं स्यादल छेतु भशवलिम् । मात्राहीनस्तु किम् मंत्रो विषमच्छी निरस्यति । ६० ।।
(धर्मसंग्रहश्रावकाचार अ० ४) अर्थ-अङ्गहीन सम्यग्दर्शन संसारसंततिको छेदनको समर्थ नहीं है, जिस प्रकार मात्राहीन मंत्र विषवेदनाको दूर नहीं कर सकता है । इसलिये निम्न लिखित अष्ट अङ्गोंको भी धारण करना आवश्यक है
१) निःशदूत- अर्थात् जिनागममें शंका न करना, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि समझने में न आवे तो पूछना भी नहीं, प्रश्न भी नहीं करना, केवल समझे वा न समझ परन्तु हां हां महाराज, जी महाराज कहते जाना इत्यादि । किन्तु अभिप्राय यह है कि मनमें यह हड़ श्रद्धान रखना कि जिनेन्द्र भगवानने तत्त्वका जो स्वरूप कहा है, वह तो यथार्थ ही है । परन्तु मेरी बुद्धिमंदताके कारण समझमें नहीं आया इसलिये समझने के अभिप्रायसे (जिज्ञासु भावसे) सवितंकों द्वारा प्रश्न करके समझाने में निःशाशित अङ्ग खंडित नहीं किन्तु मंडित होता है । कारण हांजी हांजी द्वारा मानी हुई बातमें कभी भूल होना, भ्रम पड़ना थान भ्रष्ट हो जाना भी संभव है । परन्तु वादविवादपूर्वक समझे हुए विषयमें फिर शंका ही नहीं रहती है। क्योंकि वह समझकर ग्रहण करता है । परन्तु जो लोग समझते तो कुछ नहीं है; केवल कुतकों द्वारा समय नष्ट करना चाहते हैं उनके लिये चाहे जो नियम